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आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा - भाव समायिक के प्रकार और परिभाषा २७९
यह वर्तमान प्रतिक्रमण है। प्रत्याख्यान के द्वारा भविष्यकालीन अशुभ योगों की निवृत्ति होती है, अतः यह भविष्यकालीन प्रतिक्रमण है।' ___प्रतिक्रमण के प्रकार - काल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पांच भेद भी माने गये हैं - दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक।
स्थानांग सूत्र में ६ प्रकार का प्रतिक्रमण बताया गया है - १. उच्चार प्रतिक्रमण २. प्रस्त्रवण प्रतिक्रमण। उपयोग पूर्वक दोनों (उच्चार - बडी नीत और प्रस्रवण - लघुनीत) को परठने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना।
३. इत्वर प्रतिक्रमण - दैवसिक तथा रात्रिक आदि स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। ..४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण - महाव्रत आदि के रूप में यावज्जीवन के लिये पाप से निवृत्ति करना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है।
५. यत्किञ्चन्मिथ्या प्रतिक्रमण - संयम में सावधान रहते हुए यदि प्रमादवश कोई आचरण हो जाय तो उसी समय पश्चात्ताप पूर्वक मिच्छामि दुक्कडं देना यत्किञ्चन्मिथ्या प्रतिक्रमण है।
६. स्वप्नांतिक प्रतिक्रमण - सो कर उठने पर या विकार वासना रूप कुस्वप्न देखने पर उसका प्रतिक्रमण करना स्वप्नांतिक प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण के पर्यायवाची शब्द - आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्द कथन किये हैं - . पडिक्कमणं पड़िचरणा, परिहरणा वारणा नियत्ती य।
निन्दा गरिहा सोही, पडिक्कमणं अट्ठहा होइ॥१२33॥
(१) प्रतिक्रमण - 'प्रति' उपसर्ग है और 'क्रमुपाद विक्षेपे' धातु है। दोनों का मिलाकर अर्थ होता है कि - जिन कदमों से बाहर गया है उन्हीं कदमों से लौट आए। जो साधक किसी प्रमाद के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप स्व-स्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयम रूप परस्थान में चला गया है, उसका पुनः स्वस्थान में लौट आना, प्रतिक्रमण है।
(२) प्रतिचारणा - अहिंसा, सत्य आदि संयम क्षेत्र में भली प्रकार विचरण करना, अग्रसर होना प्रतिचारणा है।
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