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________________ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट तृतीय आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र की टीका में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए तीन प्राचीन श्लोक उद्धृत किये हैं - स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद्गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ २॥ अर्थ प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योगों को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है । J क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः ॥ ३ ॥ अर्थ - रागद्वेषादि औदयिक भाव संसार का मार्ग है और समता, क्षमा, दया, नम्रता आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्ष का मार्ग है । क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। २७८ ***** ****** प्रति प्रतिवर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफल देषु । निःशल्यस्य यतेर्यत्, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ ४ ॥ अर्थ - अशुभ योग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर शुभ योग में प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। Jain Education International प्रतिक्रमण का विषय पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । असद्दहणे य तहा, विवरीय परूवणाए य ॥ १२६८ ॥ ( आवश्यक निर्युक्ति) १. हिंसादि पापों का प्रतिक्रमण २. स्वाध्याय प्रतिलेखन आदि न करने का प्रतिक्रमण ३. अमूर्त तत्त्वों के विषय में अश्रद्धा होने पर और ४. आगम विरुद्ध विचारों की प्ररूपणा हो जाने पर प्रतिक्रमण करना होता है। "अइयं पडिक्कमेड़, काल के भेद से तीन प्रकार का प्रतिक्रमण होता है पडुप्पन्नं संवरेइ, अणागयं पच्चक्खाइ ।” निन्दा द्वारा भूतकालिक अशुभ योग की निवृत्ति होती है, अतः यह अतीत काल का प्रतिक्रमण है। संवर के द्वारा वर्तमान काल विषयक अशुभ योगों की निवृत्ति होती है, अतः - ................ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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