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आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा भाव समायिक के प्रकार और परिभाषा २७७
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सुहुत्तरं नासंति, अप्पाणं जे चरित्तपब्भट्ठा ।
गुरुजण वंदाविंति सुसमण जहुत्तकारिं च ॥ १११० ॥
जो पार्श्वस्थ आदि ब्रह्मचर्य अर्थात् संयम से भ्रष्ट हैं, परन्तु अपने को गुरु कहलाते हुए सदाचारी सज्जनों से वन्दन कराते हैं वे अगले जन्म में अपंग, रोगी, टूट, मूंट होते हैं, और उनको धर्म मार्ग का मिलना अत्यन्त कठिन हो जाता है ॥ ११०९ ॥
जो चारित्र भ्रष्ट लोग अपने को यथोक्तकारी गुणश्रेष्ठ साधक से वन्दन कराते हैं और सद्गुरु होने का ढोंग रचते हैं, वे अपनी आत्मा का सर्वथा नाश कर डालते हैं ॥१११०॥ वन्दन का फल विणओवयार माणस्स, भंजणा पूयणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा, सुय धम्माराहणाऽकिरिया ॥ १२१५ ॥ वन्दन आवश्यक का यथाविधि पालन करने से विनय की प्राप्ति होती है । अहंकार का अर्थात् गर्व का नाश होता है, उच्च आदर्शों की झांकी का स्पष्टतया भान होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और श्रुतधर्म की आराधना होती है। यह श्रुतधर्म की आराधना आत्मशक्तियों का क्रमिक विकास करती हुई अन्त में मोक्ष का कारण बनती है। (सवणे नाणे भगवती २-५ )
वन्दन क्रिया का मुख्य उद्देश्य अपने में विनय एवं नम्रता का भाव प्राप्त करना है। जैन धर्म में विनय एवं नम्रता को तप कहा है
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे ।
विणयाउ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ॥ १२१६ ॥
जिनशासन का मूल विनय है । विनीत साधक ही सच्चा संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन, उसको कैसा धर्म और कैसा तप ? अर्थात् अविनीत को धर्म और तप की प्राप्ति नहीं होती है।
४. प्रतिक्रमण आवश्यक आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की वृत्ति में कहा है
शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य
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प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, अयमर्थः
शुभेषु एवं क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम् ।
अर्थात् शुभ योगों से अशुभ योगों में गये हुए अपने आपको पुनः शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।
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