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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट तृतीय
३. वन्दन आवश्यक - (अ) संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में 'गुरु' भारी को कहते हैं, अतः जो अपने से अहिंसा सत्य आदि महाव्रत रूप गुणों में भारी हैं, वे सर्व विरति साधुसाध्वी गुरु कहलाते हैं। इस कोटि में गणधर से लेकर सामान्य साधु-साध्वी सभी संयमीजनों का अन्तर्भाव हो जाता है।
(आ) गृणाति-कथयति सद्धर्म तत्वं स गुरुः (आचार्य हेमकीर्ति) अर्थात् जो सत्य धर्म का उपदेश देता है वह गुरु है।
(इ) 'वदि' अभिवादन स्तुत्योः, इति कायेन अभिवादने वाचा स्तवना इति वन्दना। (आवश्यक-चूर्णि) .
अर्थात् - गुरुदेव को वन्दना करने का अर्थ - गुरुदेव का वचन से स्तवन करना और काया से अभिवादन करना।
वन्दनीय कौन? - जो द्रव्य चारित्र (वेश-लिङ्ग) और भाव चारित्र से शुद्ध हैं ऐसे चारित्र सम्पन्न त्यागी, विरागी, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर एवं गुरुदेव आदि ही वन्दनीय हैं। जैसे मोहर लगा हुआ शुद्ध चांदी या सोने का सिक्का सर्वत्र आदर पाता है उसी प्रकार जो अपनी साधना के लिये अन्दर तथा बाहर से एक रूप हों, वे मुनि ही साधना जगत् में अभिवंदनीय माने गये हैं।
आचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति में कहते हैं - पासत्थाइ वंदमाणस्स, नेव कित्ती न निज्जरा होइ। कायकिलेस एमेव कुणइ, तह कम्मबंधं च॥ ११०८॥
अर्थात् जो मनुष्य गुणहीन अवंद्य व्यक्ति को वन्दन करता है, उसके न तो कर्मों की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही। प्रत्युत असंयम का, दुराचार का अनुमोदन करने से कर्मों का बन्ध होता है। वह वन्दन व्यर्थ का कायक्लेश है।
जो पार्श्वस्थ सदाचारियों से वन्दन कराते हैं वे असंयम में और वृद्धि करके अपना अध:पतन कराते हैं।
जे बंभचेर-भट्ठा, पाए पार्डति बंभयारीण। ते होति टुंटमुंटा, बोहि य सुदुल्लहा तेसिं॥ ११०९॥
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