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________________ श्रावक आवश्यक सूत्र - सम्मूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति के स्थान का पाठ २०. जिन धर्म से अधिक श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जिन प्रवचन से अधिक मानना मिथ्यात्व है । निर्ग्रथ प्रवचन की मर्यादा से अधिक प्ररूपणा आदि करने, सैद्धांतिक मर्यादा का अतिक्रमण करने, आगम पाठों में वृद्धि करने आदि से यह मिथ्यात्व लगता है । २१. जिन धर्म से विपरीत श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जिन मार्ग से विपरीत श्रद्धासुदेव, सुगुरु और सुधर्म से विपरीत श्रद्धा प्ररूपणा करना, निर्ग्रन्थ प्रवचन से विपरीत प्रचार करना, सावद्य एवं संसारलक्षी प्रवृत्ति करना या उसका प्रचार करना, सावद्य प्रवृत्ति में धर्म मानना, विपरीत मिथ्यात्व है । २२. अक्रिया मिथ्यात्व - सम्यक् चारित्र की उत्थापना करते हुए एकान्तवादी बन कर आत्मा को अक्रिय मानना, चारित्रवानों को "क्रिया जड़" कह कर तिरस्कार करना, अक्रिया मिथ्यात्व कहलाता है । २३. अज्ञान मिथ्यात्व - ज्ञान को बन्ध और पाप का कारण मान कर अज्ञान को श्रेष्ठ मानना । 'ज्ञान व्यर्थ है, जाने वह ताने, भोले का भगवान् है" अज्ञान मिथ्यात्व है । " इस प्रकार कहना २४. अविनय मिथ्यात्व - पूजनीय देव, गुरु और धर्म का विनय नहीं करके अविनय करना उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना अविनय मिथ्यात्व है । यह मिथ्यात्व गुण और गुणीजनों के प्रति अश्रद्धा होने पर उत्पन्न होता है । अश्रद्धा होने से ही अविनय होता है इसलिए अविनय भी मिथ्यात्व है । २५५ ******* - २५. आशातना मिथ्यात्व - आशातना का अर्थ है विपरीत होना, प्रतिकूल व्यवहार करना, विरोधी हो जाना, निन्दा करना । देव, गुरु और धर्म की आशातना करना, इनके प्रति ऐसा व्यवहार करना कि जिससे ज्ञानादि गुणों और ज्ञानियों को ठेस पहुँचे । अर्हंत भगवान् ने जो मिथ्यात्व का प्रतिपादन किया है उसका यही उद्देश्य है कि भव्य जीव सुखपूर्वक मोक्ष नगर में पहुँचे, हिंसादि मय कुमार्ग, हिंसा मिश्रित कुमार्ग या लौकिक सुखप्रद पुण्यमार्ग में भटक न जावें या अन्य इन्हें भटका न दें । संसार परिभ्रमण से बचें । - Jain Education International सम्मूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति के स्थान का पाठ १. उच्चारेसु वा २ पासवणेसु वा ३ खेलेसु वा ४ सिंघाणेसु वा वंतेसु वा ६. पित्तेसु वा ७. पूएसु वा ८. सोणिएसु वा ९. सुक्केसु वा ५. For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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