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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय
१०. सुक्कपुग्गल परिसाडेसु वा ११. विगयजीवकलेवरेसु वा. १२ इत्थीपुरिस संजोगेस् वा १३. णगरणिद्धमणेसु वा १४. सव्वेसु चेव असुइ-ठाणेसु वा। इन चौदह स्थानों में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छिम मनुष्यों की विराधना की हो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । _____ कठिन शब्दार्थ - उच्चारेसु - मनुष्यों की विष्ठा (मल) में, पासवणेसु - मूत्र में,
खेलेसु - कफ में, सिंघाणेसु - नाक के मैल (श्लेष्म) में, वंतेसु - वमन (उल्टी) में, पित्तेसु - पित्त में, सोणिएसु - रक्त (खून) में, पूएसु - पीप (राध) में, सुक्केसु - पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज में, सुक्कपुग्गल परिसाडेसु - वीर्य के सूखे हुए पुद्गल पुनः गीले होने पर उनमें पैदा होने वाले, इत्थीपुरिस संजोगेसु - स्त्री पुरुष के संयोग (मैथुन) में, विगयजीवकलेवरेसु - जीव रहित मनुष्य के शरीरों में, णगरणिद्धमणेसु - नगर की नालियों - गटरों में, सव्वेसु चेव असुइ-ठाणेसु वा - सभी अशुचि स्थानों में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छिम जीव।
भावार्थ - सम्मूर्च्छिम मनुष्यों के उत्पन्न होने के चौदह स्थान इस प्रकार हैं - १. उच्चार (विष्ठा) २. मूत्र ३. खंखार ४. नाक का मैल (श्लेष्म) ५. वमन ६. पित्त ७. पीप ८. रुधिर ९. वीर्य १०. सुखी हुई अशुचि फिर गीली हो जाय उसमें ११. मनुष्य के कलेवर (शव) में १२ स्त्री-पुरुष के संयोग में १३. नगर के खाल में १४. मनुष्य के सभी अशुचि के स्थानों में। इन चौदह स्थानों में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छिम जीवों की विराधना की हो तो उसका पाप मिथ्या (निष्फल) हो।
विवेचन - संज्ञी मनुष्यों के मल-मूत्र आदि अशुचि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य संमूछिम मनुष्य कहलाते हैं । ये बिना गर्भ के उत्पन्न होते हैं।
शंका - 'सव्वेसु चैव असुइठाणेसु' से क्या आशय समझना चाहिये?
समाधान - एक से तेरह स्थानों में से दो, तीन, चार आदि बोल शामिल करने से जीवों की उत्पत्ति हो तो वह इस अन्तिम भेद में गिना जाता है।
श्रमण सूत्र के पाठों के विषय में चर्चा शंका - श्रमण नाम साधु का है, इसलिए श्रमण सूत्र साधु को ही पढ़ना उचित हैं या श्रावक को भी?
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