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आवश्यक सूत्रं - परिशिष्ट द्वितीय ***......000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मयदा ९. शयन - सोने योग्य खाट, पलंग, बिस्तर की मर्यादा १०. विलेपन - केशर, चन्दन, तेल, साबुन, अंजन आदि की मर्यादा ११. ब्रह्मचर्य - चौथे अणुव्रत को भी संकुचित करना, कुशील की मर्यादा १२. दिग् - दिशाओं की मर्यादा १३. स्नान - स्नान की संख्या और जल की मर्यादा १४. भक्त - भोजन-पानी की मर्यादा, एक बार या दो बार तथा वस्तु का परिमाण करना।
प्रतिदिन चौदह नियम धारण करने को दसवें व्रत में गिना है क्योंकि चौदह नियम धारण करने से व्रतों का संक्षेप होता है और मर्यादित भूमि के उपरान्त आस्रव का त्याग होता है।
चौदह नियमों में से किसी एक नियम को प्रतिदिन धारण करना भी देशावकाशिकं व्रत के अन्तर्गत है। किसी भी करण योग से मर्यादित भूमि के बाहर पांच आस्रव का त्याग दसवाँ व्रत है। सामायिक में सावध भाषा टालकर चौदह नियमों की धारणा की जा सकती है जैसे इतने द्रव्य उपरान्त त्याग आदि ।
दसवें व्रत के ५ अतिचार इस प्रकार हैं - ____१. आणवणप्पओगे (आनयन प्रयोग) - मर्यादा किये हुए क्षेत्र से बाहर स्वयं न जा सकने से दूसरे को 'तुम यह चीज लेते आना' इस प्रकार संदेश आदि देकर वस्तु मंगाना 'आनयन प्रयोग' अतिचार है ।
२. पेसवणप्पओगे (प्रेष्य प्रयोग) - मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं जाने से मर्यादा का अतिक्रम हो जायेगा । इस भय से नौकर चाकर आदि आज्ञाकारी पुरुष को भेज कर कार्य कराना 'प्रेष्य प्रयोग' अतिचार है ।::
३. सहाणुवाए (शब्दानुपात) - अपने घर की बाड़ या चहारदीवारी के अन्दर नियमित क्षेत्र से बाहर कार्य होने पर व्रती का व्रत भंग के भय से स्वयं बाहर न जाकर निकटवर्ती लोगों को छींक, खांसी आदि शब्द द्वारा ज्ञान कराना 'शब्दानुपात' अतिचार है ।
- ४. रूवाणुवाए (रूपानुपात) - नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने पर दूसरों को अपने पास बुलाने के लिए अपना या पदार्थ विशेष का रूप दिखाना 'रूपानुपात' अतिचार है।
५. बहियापुग्गलपक्खेवे (बहिः पुद्गल प्रक्षेप) - नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने पर दूसरों को जताने के लिए ढेला, कंकर आदि फेंकना 'बहिःपुद्गल प्रक्षेप' कहलाता
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