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________________ श्रावक आवश्यक सूत्र - अनर्थ दण्ड विरमण व्रत वा, णाए वा, परिवारे वा, देवे वा, णागे वा, जक्खे वा, भूए वा एत्तिएहिं आगारेहिं अण्णत्थ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा एवं आठवां अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोउं - कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे उवभोगपरिभोगाइरित्ते, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । *************** - कठिन शब्दार्थ - अणट्ठादंडे - अनर्थदण्ड, अवज्झाणायरिए अपध्यान करना, पमायायरिए प्रमाद पूर्वक आचरण करना, हिंसप्पयाणे हिंसा आदि पापों के साधन देना, पावकम्मोवएसे - पापकर्म का उपदेश देना, आए - अपने लिए वा अथवा, राए राजा के लिए, णाए ज्ञाति के लिए, परिवारे- सेवक भागीदार आदि के लिए, देवे वैमानिक ज्योतिषी देवों के लिए, णागे - भवनपति देवों के लिए, भूए - भूत आदि के लिए, जक्खे - यक्ष आदि व्यंतर देवों के लिए, एत्तिएहिं - इत्यादि, आगारेहिं - आगारों के, अण्णत्थ सिवाय दूसरे प्रकार से, कंदप्पे काम विकार पैदा करने वाली कथा की हो, कुक्कुइए - भण्ड कुचेष्टा की हो, मोहरिए मुखरी वचन बोला हो, संजुत्ताहिगरणे अधिकरण जोड़ रखा हो, उवभोगपरिभोगाइरित्ते - उपभोग परिभोग अधिक बढ़ाया हो । भावार्थ - अनर्थ दंड चार प्रकार का कहा है। १. अपध्यान २. प्रमादचर्या ३. हिंसादान और ४. पापोपदेश । मैं इन चारों प्रकार के अनर्थदंड का त्याग करता हूँ । यदि आत्म रक्षा के लिए, राजा की आज्ञा से, जाति अथवा परिवार (कुटुम्ब ) के मनुष्यों के लिए तथा नाग, भूत, यक्ष आदि देवों के वशीभूत होकर अनर्थदण्ड का सेवन करना पड़े तो इसका आगार रखता हूँ। इन आगारों के सिवाय मैं जन्म पर्यन्त अनर्थदंड का मन, वचन, काया से स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरों से कराऊँगा । यदि मैंने काम जागृत करने वाली कथा की हो, भांडों की तरह दूसरों को हंसाने के लिए हंसी दिल्लगी की हो या दूसरों की नकल की हो, निरर्थक बकवास किया हो, तलवार, ऊखल मूसल आदि हिंसाकारी हथियारों या औजारों का निष्प्रयोजन संग्रह किया हो, उपभोग परिभोग में आने वाली वस्तुओं का अधिक संग्रह किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे वे सब पाप निष्फल हो। - Jain Education International - - For Personal & Private Use Only - - २३५ - - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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