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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय
. विवेचन - जिससे आत्मा व अन्य प्राणी दंडित हो अर्थात् उनकी हिंसा हो इस प्रकार की मन, वचन, काया की कलुषित प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं। दण्ड के दो भेद हैं -
१. अर्थदण्ड - स्व, पर या उभय के प्रयोजन के लिये त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा करना अर्थदण्ड है। ____२. अनर्थ दण्ड - जो कार्य स्वयं के, परिवार के, सगे सम्बन्धी मित्रादि के हित में न हो, जिसका कोई प्रयोजन न हो और व्यर्थ में आत्मा पापों से दंडित हो, उसे अनर्थ दण्ड कहते हैं। विकथा करना, बुरा उपदेश देना, फिजूल बातें करना आदि प्रवृत्तियां अनर्थ दण्ड हैं। अनर्थ दण्ड चार प्रकार का होता है -
१. अवज्झाणायरिए (अपध्यानाचरित) - बिना कारण आर्तध्यान, रौद्रध्यान करना या . सकारण तीव्र आर्त्तध्यान करना अपध्यानाचरित कहलाता है । क्रोध में अपना सिर आदि. पीट लेना, बिना कारण ही दांत पीसना, पुरानी बातों को याद करके रोना, शेख चिल्ली के समान भौतिक सुख पाने के लिये कल्पना की उड़ानें भरना अपध्यानाचरित है।
२. पमायायरिए (प्रमादाचरित) - प्रमादपूर्वक आचरण करना अर्थात् मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा में लगे रहना तथा प्रमाद से कार्य करना जिससे जीवों की हिंसा हो जैसे - बिना देखे चलना, फिरना, वस्तु को उठाना, रखना, पानी, तेल, घी आदि तरल पदार्थों के बर्तनों को खुले रख देना आदि प्रमादाचरित है।
३. हिंसप्पयाणे (हिंस्त्र प्रदान) - हिंसा आदि पापों के साधन अस्त्र शस्त्रादि या तत्संबंधी साहित्य दूसरों को देना हिंस्र प्रदान कहलाता है ।
४. पावकम्मोवएसे (पापकर्मोपदेश) - पाप कार्यों का उपदेश देना, पाप कार्यों की प्रेरणा करना पापकर्म उपदेश है।।
आठवें व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार है -
१. कंदध्ये (कंदर्प) - काम उत्पन्न करने वाले वचन का प्रयोग करना, राग के आवेश में हास्य मिश्रित मोहोद्दीपक मजाक करना कन्दर्प कहलाता है ।
२. कुक्कुइए (कौत्कुच्य) - भांडों की तरह भौएं, नेत्र, नासिका, ओष्ठ, मुख, हाथ, पैर आदि अंगों को विकृत बना कर दूसरों को हंसाने वाली चेष्टा करना कौत्कुच्य अतिचार है।
३. मोहरिए (मौखर्य) - ढिठाई के साथ असत्य, ऊटपटांग वचन बोलने से मौखर्य अतिचार लगता है।
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