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________________ २३४ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय जो खोद कर जलाशय बनाया जाता है उसे 'तड़ाग' (तालाब) कहते हैं। इन सरोवर, हृद, तालाब आदि को सूखाना "सरोहृदतडागपरिशोषणता" है। . १५. असईजण पोसणया (असतीजन पोषणता) - आजीविका कमाने के लिए दुश्चरित्र स्त्रियों का पोषण करना "असतीजन पोषणता" है। पाप बुद्धि पूर्वक कुर्कुट मार्जाद (बिल्ली) आदि हिंसक जानवरों का पोषण करना भी इसी में सम्मिलित है। शंका - पांचवां, छठा और सातवां व्रत प्रायः एक करण तीन योग से क्यों लिये जाते हैं? समाधान - क्योंकि श्रावक अपने पास मर्यादा से अधिक धन हो जाने पर दान पुण्य आदि में व्यय करता है, वैसे अपने पुत्रादि को देने का ममत्व भी त्याग नहीं पाता। इसी प्रकार कहीं गड़ा धन मिल जाय तो उसे अपने स्वजनों को देने का मोह भी त्याग नहीं पाता। इसी प्रकार छठे व्रत की भी स्थिति है जैसे - श्रावक अपनी की हुई दिशाओं की मर्यादा के उपरांत स्वयं तो नहीं जाता पर कई बार अपने पुत्रादि को विद्या व्यापार आदि के लिये भेजने का प्रसंग आ जाता है। इसी प्रकार उपभोग परिभोग वस्तुओं की मर्यादा के उपरान्त पुत्रादि को भोगने के लिए कहने का अवसर आ जाता है । इसलिए उक्त व्रत एक करण तीन योग से ग्रहण किये जाते हैं । यह बात सामान्य दर्जे के श्रावक को लक्ष्य में रखकर कही गई है, विशिष्ट श्रावक इन व्रतों को विशिष्ट करण योगों से भी ग्रहण कर सकता है। रात्रि भोजन का त्याग श्रावक के सातवें व्रत में गर्भित है, यह उपभोग परिभोग की कालाश्रित मर्यादा है। उपभोग परिभोग की वस्तुओं की मर्यादा से संकल्प विकल्प से मुक्ति मिलती है। आवश्यकताएँ घटती हैं। जीवन संतोषमय व त्याग मय बनता है । धर्माचरण के लिए अधिक समय मिलता है। मर्यादित भूमि के बाहर उपभोग परिभोग की वस्तुओं का सम्पूर्ण और मर्यादित भूमि में भी बहुत सी वस्तुओं का त्याग होने से आस्रव रुकता है। 6. अनर्थ दण्ड विरमण व्रत आठवाँ व्रत-अणट्ठादण्ड विरमण - चउव्विहे अणट्ठादण्डे पण्णत्ते तंजहा - अवज्झाणायरिए, पमायायरिए *, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवएसे, एवं अणट्ठादण्ड सेवन का पच्चक्खाण जिसमें आठ आगारआए वा, राए * पाठान्तर - अवज्झाणाचरिए, पमायाचरिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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