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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय
पांच आश्रव सेवन का पच्चक्खाण जावजीवाए एगविहं तिविहेणं • न करेमि मणसा वयसा कायसा एवं छठे दिशि व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोऊँ - उड्ढदिसिप्पमाणाइक्कमे, अहोदिसिप्पमाणाइक्कमे, तिरियदिसिप्पमाणाइक्कमे, खित्तवुड्डी, सइअन्तरद्धा, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । __ कठिन शब्दार्थ - उड्ड - ऊर्ध्व (ऊंची), अहो - अधो (नीची), तिरिय - तिर्यक् (तिरछी), दिसि - दिशा, उड्डदिसिप्पमाणाइक्कमे - ऊँची दिशा का परिमाण अतिक्रमण किया हो, अहोदिसिप्पमाणाइक्कमे - नीची दिशा का परिमाण अतिक्रमण किया हो, तिरियदिसिप्पमाणइक्कमे - तिरछी दिशा का परिमाण अतिक्रमण किया हो, खित्तवुडी - क्षेत्र वृद्धि - क्षेत्र बढ़ाया हो, सइअन्तरद्धा - स्मृत्यन्तर्धान - क्षेत्र परिमाण के भूल जाने से पथ का सन्देह पड़ने पर आगे चला हो । ... भावार्थ - जो मैंने ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यक् दिशा का परिमाण किया है उसके । आगे गमनागमन आदि क्रियाओं को मन, वचन, काया से न करूँगा। यदि मैंने ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिर्यक् दिशा के परिमाण का उल्लंघन किया हो, क्षेत्र बढ़ाया हो, क्षेत्र परिमाण में संदेह होने पर आगे चला होऊँ तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ कि मेरे वे सब पाप मिथ्या हो।
विवेचन - दिशाएँ छह हैं। जिस दिशा में जितना जाना पड़े उतना परिमाण करना दिशा परिमाण है। जैसे-ऊंचे पर्वत पर या हवाई जहाज से इतने किलोमीटर से ऊंचा नहीं जाऊंगा। तलघर में, खान में इतने हाथ से नीचे नहीं जाऊंगा। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में इतने किलोमीटर से आगे नहीं जाऊंगा।
क्षेत्र वृद्धि - पूर्वादि दिशा की मर्यादित भूमि से आधी भूमि में भी मुझे जाना नहीं पड़ता और पश्चिमादि भूमि में मर्यादित भूमि से अधिक भूमि में जाना धनादि की दृष्टि से मुझे लाभप्रद है, इत्यादि सोचकर एक दिशा में घटाकर दूसरी में बढ़ाना। लोक असंख्यात कोडाकोडी योजन विस्तार वाला है, दिशाओं की मर्यादा करने से मर्यादा से बाहर जाने का सम्पूर्ण त्याग होने से महान् आस्रव रुक जाता है।
* "दुविहं तिविहेणं" भी कोई-कोई बोलते हैं ।
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