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श्रावक आवश्यक सूत्र - दिशा परिमाण व्रत
२२७ www.sieuvietsunovoodooeaewoo काया से जन्म पर्यंत त्याग करता हूँ। यदि मैंने खेत मकान आदि का परिमाण उल्लंघन किया हो, दास दासी आदि द्विपद और गाय घोड़ा आदि चतुष्पद की संख्या के परिमाण का उल्लंघन किया हो, धन धान्य के परिमाण का उल्लंघन किया हो, सोने चाँदी के सिवाय अन्य धातुओं के एवं घर के अन्य सामान के परिमाण का अतिक्रमण किया हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ और चाहता हूँ कि मेरे सब पाप निष्फल हो।
विवेचन - स्थूल परिग्रह विरमण तीन प्रकार का होता है - १. जितना परिग्रह वर्तमान में स्वयं के पास है, उससे डेढे दूने से अधिक परिग्रह नहीं रखूगा। यदि उससे अधिक प्राप्त हुआ तो मैं ग्रहण नहीं करूंगा या धर्मादि में खर्च कर दूंगा। यह जघन्य प्रकार का स्थूल परिग्रह विरमण है। २. जितना पास है उससे अधिक विरमण करना मध्यम प्रकार का विरमण है। ३. जितना पास है उससे भी घटाकर विरमण करना उत्तम प्रकार का विरमण है।
परिग्रह पाप का मूल है, प्रभु ने फरमाया है - "इच्छा हु आगाससमा अर्णतिया" इच्छा आकाश के समान अनन्त है । ज्यों -ज्यों लाभ होता है, लोभ बढ़ता जाता है। सभी जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर कोई बन्धन नहीं है । यह महान् अशान्ति का कारण है । इंससे कलह, हिंसा, बेईमानी आदि का प्रादुर्भाव होता है।
- अपरिग्रह व्रत का पालन करने से तृष्णा जन्य संकल्प विकल्प से मुक्ति मिलती है । वर्तमान में विद्यमान धनादि में आसक्ति मन्द होती है । अभाव में सन्तोष रहता है । निद्रा सुख से आती है, आदि अनेक लाभ हैं । ____ परिग्रह कम करने के लिए परिग्रह पाप का कारण है अतः सम्पूर्ण अपरिग्रही कब बनूंगा? यह मनोरथ चिन्तन करना । परिग्रह में आसक्त दुर्योधन, कोणिक आदि तथा परिग्रह त्यागी भरत चक्रवर्ती, धन्ना मुनि, अर्हन्त्रक आदि के चरित्र पर ध्यान देना। अपरिग्रह अणुव्रत के पाँच अतिचार भावार्थ से स्पष्ट है।
६. दिशा परिमाण व्रत छठा दिशिव्रत - ऊर्ध्व दिशा (उड्डदिसि) का यथा परिमाण, अधो दिशा (अहोदिसि) का यथा परिमाण, तिर्यक् दिशा (तिरियदिसि ) का यथा परिमाण एवं यथा परिमाण किया है, उसके उपरान्त स्वेच्छा काया से आगे जाकर
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