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________________ २२६ आवश्यक-सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय .. ......................... ............. ब्रह्मचर्य पालन से शरीर नीरोग, हृदय बलवान्, इन्द्रियां सतेज, बुद्धि तीक्ष्ण और चित्त स्वस्थ रहता है। अन्तरंग लाभ भी महान् हैं - संसार परिमित होता है यावत् केवलज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति होती है। ५ अपरिग्रह अणुव्रत पांचवां अणुव्रत-थूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं - क्षेत्र वास्तु का यथापरिमाण, हिरण्य-सुवर्ण का यथापरिमाण, धन-धान्य का यथापरिमाण, द्विपद-चतुष्पद का यथापरिमाण, कुप्य का यथापरिमाण एवं जो परिमाण किया है उसके उपरान्त अपना करके परिग्रह रखने का पच्चक्खाण जावज्जीवाए, एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा वयसा कायसा एवं पांचवां व्रत स्थूलपरिग्रह विरमण के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोऊं - खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्कमे, हिरण्णसुवण्णप्पमाणाइक्कमे, धणधण्णप्पमाणाइक्कमे, दुपयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे,कुवियप्पमाणाइक्कमे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। कठिन शब्दार्थ - परिग्गहाओ - परिग्रह से, खेत - खुली जमीन, वत्थु - ढकी भूमि, हिरण्ण - चांदी, सुवण्ण - सोना, दुपय - द्विपद, चउप्पय - चतुष्पद, धन - रोकड पूंजी, सिक्के आदि, धान्य - गेहूँ आदि अनाज, कुविय - सोना चांदी के सिवाय धातु व अन्य घर सामग्री, खेतवत्थुप्पमाणाइक्कमे - क्षेत्र वस्तु के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, हिरण्णसुवण्णप्पमाणाइक्कमे - 'हिरण्य सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, दुपयचउप्पयप्पमाणाइक्कमे - द्विपद, चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण किया हो. धणधण्णप्पमाणाइक्कमे - धन धान्य के परिणाम का अतिक्रमण किया हो, कुवियप्पमाणाइक्कमे - कुप्य के परिणाम का उल्लंघन किया हो। भावार्थ - खेत, महल, मकान, सोना, चाँदी, दास, दासी, गाय, हाथी, घोड़ा आदि धन धान्य तथा सोना चाँदी के सिवाय धातु तथा बर्तन आदि और शय्या आसन वस्त्र आदि घर संबंधी वस्तुओं का मैंने जो परिमाण किया है इसके उपरांत मैं सम्पूर्ण परिग्रह का मन, वचन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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