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उत्थानिका
आवश्यक सूत्र के छह अध्ययन (आवश्यक) हैं १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान । इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है१. सामायिक - राग द्वेष के वश न हो कर समभाव ( मध्यस्थभाव) में रहना अर्थात् किसी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाते हुए सभी के साथ आत्म तुल्य व्यवहार करना एवं आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना सामायिक है ।
२. चतुर्विंशतिस्तव चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का भक्तिपूर्वक कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव है। इसका उद्देश्य गुणानुराग की वृद्धि है जो कि निर्जरा और आत्मा के विकास का साधन है।
३. वंदना - मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार जिसके द्वारा पूज्यों के प्रति भक्ति बहुमान प्रकट किया जाय, वंदना कहलाता है ।
४. प्रतिक्रमण - प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग प्राप्त करना अथवा अशुभ योग से निवृत्त होकर उत्तरोत्तर शुभ योग में प्रवृत्त होना 'प्रतिक्रमण' है।
५. कायोत्सर्ग . धर्मध्यान और शुक्लध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर के ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
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६. प्रत्याख्यान द्रव्य और भाव से आत्मा के लिए अनिष्टकारी अत एव त्यागने
• योग्य अन्न, वस्त्रादि तथा अज्ञान, कषायादि, मन वचन और काया से यथाशक्ति त्याग करना प्रत्याख्यान है।
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शंका आवश्यक के इन छह अध्ययनों (आवश्यकों) का क्रम इस प्रकार क्यों रखा गया है ?
समाधान - आलोचना प्रारंभ करने से पूर्व आत्मा में समभाव की प्राप्ति होना आवश्यक है अतः पहला अध्ययन सामायिक चारित्र रूप है। आलोचना निर्विघ्नता से पूर्ण हो इसके लिए महापुरुषों की स्तुति की जाती है। अर्हन्त ( तीर्थंकरों) के गुणों की स्तुति रूप दूसरा चतुर्विंशतिस्तव नामक अध्ययन दर्शन और ज्ञान रूप है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों के सेवन में भूल होने पर उनकी गुरु के समक्ष वंदना पूर्वक विनय भाव से आलोचना कर लेनी चाहिये अतः तीसरा अध्ययन वंदना है। गुरु के आगे भूल की आलोचना करने पर वापिस शुभ योगों में आने के लिए प्रयत्न करना चाहिये। इसलिए वंदना के बाद प्रतिक्रमण कहा गया
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