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आवश्यक सूत्र
उपरोक्त ३२ आगम में से ११ अंगसूत्र अंगप्रविष्ठ श्रुत के अंतर्गत आते हैं जिन्हें तीर्थंकर भगवंत अर्थ रूप में फरमाते हैं और गणधर भगवंत सूत्ररूप में गुंथित करते हैं। शेष आगम अनंगप्रविष्ठ (अंग बाह्य) श्रुत कहलाते हैं जिनकी रचना स्थविर भगवंत करते हैं। स्थविर भगवंत जो सूत्र की रचना करते हैं वे १० पूर्वी अथवा उससे अधिक पूर्व के ज्ञाता होते हैं।
प्रस्तुत बतीसवां सूत्र आवश्यक (आवस्सय) सूत्र है। आवश्यक का अर्थ है - 'जो अवश्य किया जाय।' साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ के लिए उभयकाल आवश्यक करने का विधान है। सम्यग्ज्ञान आदि गुणों का पूर्ण विकास करने के लिये जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वही आवश्यक है।
__ अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम दिए हैं - आवश्यक, आवश्यक करणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, अध्ययन षट्कवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग।
इन नामों में किंचित् अर्थ भेद होने पर भी सभी नाम समान अर्थ को ही व्यक्त करते हैं।
यद्यपि आवश्यकादि अंग बाह्य सूत्र, अंग सूत्रों से ही निर्वृहित होते हैं, इसलिये द्वादशाङ्गी में तो आवश्यकादि समाविष्ट होने से गणधरों की रचना में तो उनका समावेश होता ही है। तथापि आगमकालीन युग में भी साधकों के लिए आवश्यक (अनिवार्य) होने से सर्वप्रथम सामायिक आदि आवश्यक सीखाये जाते हैं। उभय सन्ध्या ही आवश्यक का काल होने से भी इनको 'कालिक' नहीं कहा जा सकता। इसलिये भी इन्हें 'उत्कालिक' कहा गया है। पश्चाद्वर्ती काल में तो विधिवत् अंगसूत्रों से इसका निर्वृहण हुआ है। इसलिये यह अंगबाह्य
कहा गया है। .. अंगसूत्रों के आधार से स्थविरों ने इसकी रचना की है। इसीलिये भाष्यकारों ने
'गणहरथरकयं वा, अंगाणंगेसु णाणत' - 'अंगसूत्र गणधरकृत हैं और अंग बाह्य स्थविरकृत होते हैं, ऐसा बताया है। नंदी और अनुयोगद्वार में आवश्यक को अंगबाह्य बताया है। इसलिये औपपातिक आदि की तरह आवश्यक भी स्थविरकृत है। अंग सूत्रों के भावों को लेकर स्थविरों के द्वारा स्थविरों के शब्दों में रचा जाने से इसकी उत्कालिकता स्पष्ट है। नंदीसूत्र में तो आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक, उत्कालिक भेद किये हैं, जबकि अनुयोगद्वार सूत्र में उत्कालिक के आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त भेद किये हैं। इसलिये अपेक्षा से आवश्यक को उत्कालिक माना है।
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