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आवश्यक सूत्र
है। प्रतिक्रमण के द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र में लगे अतिचारों की शुद्धि की जाती है। इतने पर भी दोषों की पूर्ण शुद्धि नहीं हो तो कायोत्सर्ग का आश्रय लेना चाहिये जो कि प्रायश्चित्त का एक प्रकार है। कायोत्सर्ग करने के बाद भी दोषों की पूर्ण रूप से शुद्धि न हो तो उसके लिए प्रत्याख्यान करना चाहिये। इस प्रकार आवश्यक सूत्र के छहों अध्ययन (आवश्यक) परस्पर संबद्ध एवं कार्य कारण भाव से व्यवस्थित है।
आत्मशुद्धि के लिए ही इन छहों अध्ययनों का क्रम इस प्रकार रखा गया है।
अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक सूत्र के छह अंगों के नाम इस प्रकार दिए गये हैं - १. सावद्ययोग विरति (सामायिक) २. उत्कीर्तन (चतुर्विंशतिस्तव) ३. गुणवत् प्रतिपत्ति (गुरु उपासना अथवा वन्दना) ४. स्खलित निन्दना (प्रतिक्रमण - पिछले पापों की आलोचना) ५. व्रणचिकित्सा (कायोत्सर्ग - ध्यान शरीर से ममत्व त्याग) और ६. गुणधारण (प्रत्याख्यानआगे के लिए त्याग, नियम ग्रहण आदि)।
प्रतिक्रमण अध्ययन, आवश्यक सूत्र का एक अंग विशेष है तथापि सामान्यतः संपूर्ण . आवश्यक को प्रतिक्रमण कहा जाने लगा है। सामायिक आदि की शुद्धि प्रतिक्रमण के बिना नहीं होती अतः प्रतिक्रमण मुख्य होने से वही आवश्यक रूप में प्रचलित हो गया है। दूसरा एक कारण यह भी है कि आवश्यक के छहों अध्ययनों में प्रतिक्रमण नामक चौथा अध्ययन अक्षर प्रमाण में सबसे बड़ा है। इससे भी आवश्यक का दूसरा नाम प्रतिक्रमण सिद्ध होता है। ___ यहाँ पर षड् अध्ययन वाला श्रमणावश्यक सूत्र प्रारंभ करना है जिसके आदि में कहे जाने वाले हेतुओं से पंच नमस्कार रूप मंगल करना आवश्यक है। अत एव उसके लिए गुरु महाराज की आज्ञा लेनी चाहिए, वह आज्ञा वंदना पूर्वक ही ली जाती है अतः पहले गुरु वंदन सूत्र कहते हैं - .
गुरु वंदन सूत्र तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, णमंसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि*।
* राजप्रश्नीय सूत्र में 'मत्थएण वंदामि' यह पाठ नहीं है, किन्तु परम्परा की धारणा और प्रचलित परिपाटी के अनुसार यह पाठ यहाँ दिया गया है।
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