SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ ********........................00 आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम संजोग मूला जीवेण, पत्ता दुक्ख - परंपरा । तम्हा संजोग - संबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥ १३ ॥ ( एकत्व और अनित्य भावना ) मुनि प्रसन्न चित्त से अपने आपको समझता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ । सप्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन उपलक्षण से सम्यक् चारित्र से परिपूर्ण मेरी आत्मा ही शाश्वत है, सत्य सनातन है, आत्मा के सिवाय अन्य सब पदार्थ संयोगमात्र से मिले हैं। जीवात्मा ने आज दिन तक दुःख परम्परा प्राप्त की है वह सब पर पदार्थों के संयोग से प्राप्त हुई है । अतएव मैं संयोग सम्बन्ध का सर्वथा परित्याग करता हूँ । खमि खमाविअ मइ खमह, सव्व जीव - निकाय । सिद्धह साख आलोयणह, मुज्झह वइर न भाव ॥१४॥ सव्वे जीवा कम्मस्स, चउदह - राज भमंत । ते मे सव्व खमाविआ, मुज्झ वि तेह खमंत ॥ १५ ॥ (क्षमापना ) हे जीव गणं! तुम सब खमतखामणा करके मुझ पर क्षमा भाव करो । सिद्धों की साक्षी रख कर आलोचना करता हूँ कि मेरा किसी से भी वैरभाव नहीं है। ******* सभी जीव कर्मवश चौदह राजु प्रमाण लोक में परिभ्रमण करते हैं, उन सबको मैंने खमाया है, अत एव वे सब मुझे भी क्षमा करें। जं जं मणेण बद्धं, जं जं वाएण भासियं पावं । जं जं कारण कयं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ १६ ॥ (मिच्छामि दुक्कडं) मैंने जो जो पाप मन से संकल्प द्वारा बांधे हो, वाणी से पाप मूलक वचन बोले हों और शरीर से पापाचरण किया हो, वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या हो । णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ॥ एसो पंच - णम्मुकारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ Jain Education International श्री अर्हंतों को नमस्कार हो, श्री सिद्धों को नमस्कार हो, श्री आचार्यों को नमस्कार हो, श्री उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो । यह पाँच पदों को किया हुआ नमस्कार, सब पापों का सर्वथा नाश करने वाला है और संसार के सभी मंगलों में प्रथम अर्थात् भाव रूप मुख्य मंगल है। ॥ इति संस्तार पौरुषी सूत्र समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy