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________________ श्रमण आवश्यक सूत्र - संस्तार-पौरुषी सूत्र २०५ चार संसार में उत्तम हैं, अर्हन्त भगवान् उत्तम है, सिद्ध भगवान् उत्तम है, साधु-मुनिराज उत्तम है, केवली का कहा हुआ धर्म उत्तम है। चत्तारि सरणं पवजामि - अरहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि। साहु सरणं पवजामि, केवलि पण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि॥६॥ चारों की शरण अंगीकार करता हूँ - अर्हन्तों की शरण अंगीकार करता हूँ, सिद्धों की शरण अंगीकार करता हूँ। साधुओं की शरण अंगीकार करता हूँ, केवली द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ। जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए। आहारमुवहिदेहं, सव्वं,तिविहेण वोसिरियं॥७॥ . (नियम सूत्र) यदि इस रात्रि में मेरे इस शरीर का प्रमाद हो अर्थात् मेरी मृत्यु हो तो आहार, उपधि - उपकरण और देह का मन, वचन और काया से त्याग करता हूँ। पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं मेहुणं दविणमुच्छं। कोहं माणं मायं, लोह पिज्जं तहा दोसं॥८॥ कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्नं रइ-अरइ समाउत्ता। पर परिवायं माया मोसं, मिच्छत्तसल्लं च॥९॥ वोसिरसु इमाई, मुक्खमग्ग संसग्गविग्घभूआई। दुग्गइ-निबंधणाई, अट्ठारस पावठाणाइं॥१०॥ (पापं स्थान का त्याग) हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान - मिथ्यादोषारोपण, पैशन्य - चुगली, रति-अरति, परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यादर्शनशल्य। ___ ये अठारह पाप स्थान मोक्ष के मार्ग में विघ्न रूप हैं बाधक हैं। इतना ही नहीं दुर्गति के कारण भी हैं। अत एव सभी पापस्थानों का मन, वचन और शरीर से त्याग करता हूँ। एगोहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ। एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ॥११॥ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसण-संजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा॥१२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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