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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम
संस्तार- पौरुषी सूत्र
अणुजाणह परमगुरु ! गुरु गुण-रयणेहिं मंडिय सरीरा । बहु पडिपुन्ना पोरिसि, राइय संथारए ठामि ॥१॥
(संथारा के लिए आज्ञा) हे श्रेष्ठ गुण रत्नों से अलंकृत परम गुरु ! आप मुझे संथारा करने की आज्ञा दीजिए। एक प्रहर परिपूर्ण बीत चुका है, इसलिए मैं रात्रि - संथारा करना चाहता हूँ। अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपासेणं ।
कुक्कुडि - पायपसारण, अतरंत पमज्जए भूमिं ॥ २ ॥
संकोइ संडासा, उवट्टंते काय - पडिलेहा । दव्वाई - उवओगं, ऊसासनिरुंभणालोए ॥ ३ ॥
( संथारा करने की विधि) मुझको संथारा की आज्ञा दीजिये। (संथारा की आज्ञा देते हुए उसकी विधि का उपदेश देते हैं) मुनि बाईं भुजा को तकिया बनाकर बाईं करवट से सोवे . और मुर्गी की तरह ऊंचे पाँव करके सोने में यदि असमर्थ हो तो भूमि का प्रमार्जन कर उस पर पांव रखे।
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दोनों घुटनों को सिकोड़ कर सोवे । करवट बदलते समय शरीर की प्रतिलेखना करे। जागने के लिए द्रव्यादि के द्वारा आत्मा का चिंतन करे- 'मैं कौन हूँ और कैसा हूँ?" इस प्रश्न का चिंतन करना द्रव्य चिन्तन है। तत्त्वतः मेरा क्षेत्र कौनसा है ? यह विचार करना क्षेत्र चिंतन है। मैं प्रमाद रूप रात्रि में सोया पड़ा हूँ अथवा अप्रमत्त भाव रूप दिन में जागृत हूँ। यह चिंतन काल चिंतन है। मुझे इस समय लघु शंका आदि द्रव्य बाधा और रागद्वेष आदि भाव बाधा कितनी है ? यह विचार करना भाव चिंतन है। इतने पर भी यदि अच्छी तरह निद्रा दूर न हो तो श्वास को रोक कर उसे दूर करे और द्वार का अवलोकन करे अर्थात् दरवाजे की और देखे । चत्तारि मंगलं - अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं ।
साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥४॥
चार मंगल है, अर्हन्त भगवान् मंगल है, सिद्ध भगवान् मंगल है, पाँच महाव्रतधारी साधु मंगल है, केवलज्ञानी का कहा हुआ अहिंसा आदि धर्म मंगल है।
चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा ।
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साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥५ ॥
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