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________________ २०० आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000.. दोहा - अनन्त चौबीसी जिन नमू, सिद्ध अनन्ता करोड़। केवलज्ञानी गणधरा वन्दूं बे कर जोड़ ॥१॥ दोय करोड़ केवलधरा, विहरमान जिन बीस । सहस्त्र युगल कोड़ी नमू, साधु नमूं निश दीस ॥२॥ धन साधु धन साध्वी, धन धन है जिन धर्म । ये समर्या पातक झरे, टूटे आठों कर्म ॥३॥ अरहंत सिद्ध समरूँ सदा, आचारज उवज्झाय । साधु सकल के चरण को, वन्दूं शीश नमाय ॥ ४ ॥ अंगूठे अमृत बसे, लब्धि तणा भण्डार । . श्री गुरु गौतम. समरिये, वांछित फल दातार ॥५॥ _____चौरासी लाख जीवयोनि का पाठ सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अपकाय, सात लाख तेउकाय, सात लाख वायुकाय, दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय, दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेइन्द्रिय, दो लाख चउरिन्द्रिय, चार लाख नारकी, चार लाख देवता, चार लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य। ऐसे चार गति में चौरासी लाख जीव योनि के सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त जीव में से किसी जीव को हलते-चलते, उठते-बैठते, सोते-जागते हनन किया हो, कराया हो, हनता प्रति अनुमोदन किया हो छेदा हो भेदा हो, किलामणा उपजाई हो तो मन वचन काया करके अठारह लाख चौबीस हजार एक सौ बीस (१८२४१२०) प्रकारे जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। विवेचन - १८२४१२० प्रकार की गणना जीव के ५६३ भेदों को 'अभिहया वत्तिया। आदि दस विराधना से गुणा करने पर ५६३० भेद होते हैं। फिर इनको राग और द्वेष के साथ दुगुणा करने से ११२६० भेद बनते हैं। फिर इनको तीन करण तीन योग से गुणा करने पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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