________________
***********
श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत
.....................
-
लालच, तृष्णा, राग
माया और लोभ जन्य आत्मा का वैभाविक परिणाम, द्वेष- क्रोध और मान जन्य आत्मा का वैभाविक परिणाम, कलह क्लेश, झगड़ा, अभ्याख्यान
झूठा आल
देना, कलंक लगाना, पैशुन्य दूसरे की चुगली करना, पर-परिवाद - दूसरे की निन्दा करना, रति - बुरे कार्यों में चित्त का लगना, अरति - धर्म ध्यान संयम आदि अच्छे कार्यों में चित्त का न लगना, माया - मृषावाद कपट सहित झूठ बोलना, मिथ्यादर्शनशल्य - कुदेव, कुगुरु, कुधर्म में श्रद्धा होना अथवा अतत्त्व में तत्त्व और तत्त्व में अतत्त्व की श्रद्धा होना ।
विवेचन अठारह पापों में अठारहवाँ - मिथ्यादर्शनशल्य पाप सबसे बड़ा ( भयंकर) है। ये पाप स्थान सेवन करने योग्य नहीं हैं, इनका आचरण करने से महा अशुभ कर्मों का बन्ध होता है। आत्मा दुर्गति में पड़ती है। पापों का स्वरूप समझने से पाप कार्यों से बचा जा सकता है और धर्म व पुण्य के कार्य में प्रवृत्ति की जा सकती है ।
शंका - परिग्रह और लोभ में क्या अन्तर है ?
-
-
-
Jain Education International
-
समाधान प्राप्त वस्तु को ग्रहण करना और उसके प्रति ममत्व रखना परिग्रह है एवं अप्राप्त वस्तु की चाह करना लोभ है।
शंका - रति और अरति पाप का क्या स्वरूप है ?
समाधान- मनोज्ञ विषयों पर राग और संयम विरुद्ध कार्यों में आनन्द मानने को 'रति' तथा अमनोज्ञ विषयों पर द्वेष और संयम संबन्धी कार्यों में उदासीनता को 'अरति' कहते हैं ।
**************
कायोत्सर्ग विशुद्धि का पाठ
काउस्सग्ग में आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान ध्याया हो, मन, वचन और काया चलित हुए हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
१२५ अतिचारों का प्रकटीकरण
कायोत्सर्ग में बोले गये पाठ मिच्छामि दुक्कर्ड सहित प्रकट बोलना। पाँच महाव्रत
१७७
-
छह
१. पढमे भंते! महव्वए सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं । द्रव्य से काय जीवों की हिंसा करनी नहीं । क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक प्रमाण । काल से - यावज्जीवन तक, भाव से तीन करणं तीन योग से गुण से
-
For Personal & Private Use Only
-
www.jainelibrary.org