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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम
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उखाड दे, चाबुक, बेंत या लता से प्रहार करे, पांव, एडी, घुटना और जानु आदि पर पत्थर से प्रहार करे, कोल्हु आदि में डाल कर पीलें, करेंच फल के बूर या अन्य साधन से तीव्र रूप से खुजली उत्पन्न करे, आग में तपावे या जलावे, बिच्छु के डंक लगवावे, वायु, धूप, डांसमच्छर आदि से होने वाले कष्ट, उबड़-खाबड़ शय्या एवं आसन तथा अत्यन्त कठोर, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष और इस प्रकार के अन्य अनिच्छनीय एवं दुःखदायक स्पर्श होने पर साधु को उन पर द्वेष नहीं करना चाहिए। हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए। क्रोधित होकर उनका छेदन - भेदन और वध नहीं करना चाहिए। उन पर घृणा भी नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी भावना से भावित आत्मा वाला साधु निर्मल होता है। उसका चारित्र विशुद्ध रहता है। मनोज्ञ या अमनोज्ञ, सुगन्धित या दुर्गन्धयुक्त पदार्थों में आत्मा को राग-द्वेष रहित रखता हुआ साधु मन वचन और काया से गुप्त एवं संवृत्त रहे और जितेन्द्रिय हो कर धर्म का आचरण करे ।
मूल गुण आदि का पाठ
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मूल गुण ५ महाव्रत, उत्तरगुण १० प्रत्याख्यान इन में अतिक्रम, व्यतिक्रम अतिचार अनाचार लगा हो तो तस्स (आलोऊं ) मिच्छामि दुक्कडं ।
अठारह पाप स्थान का पाठ
अठारह पापस्थान आलोऊँ- १. प्राणातिपात, २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९. लोभ, १०. राग, ११. द्वेष, १२. कलह, १३. अभ्याख्यान, १४. पैशुन्य, १५. परपरिवाद, १६. रति - अरति, १७. माया - मृषावाद, १८. मिथ्यादर्शन शल्य । इन अठारह पापस्थानों में से किसी पाप का सेवन किया हो, सेवन कराया हो और सेवन करते हुए को भला जाना हो तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान् की साक्षी से दिवस सम्बन्धी तस्स आलोडं ( तस्स मिच्छामि दुक्कडं )।
कठिन शब्दार्थ - प्राणातिपात - जीवहिंसा - प्राणियों का वध, मृषावाद - झूठ, अदत्तादान - बिना दिये ग्रहण करना चोरी, मैथुन - अब्रह्मचर्य, कुशील, परिग्रह - मूर्च्छा, ममत्व, क्रोध - रोष, गुस्सा, मान
अहंकार, घमण्ड, माया
छल, कपट, लोभ
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