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________________ श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं का विस्तार १७३ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नहीं करना चाहिए। यह श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी भावना है। इस भावना का यथातथ्य पालन करने से अन्तरात्मा भावित होती है। शब्द मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ, शुभ हो या अशुभ सुनाई दे उनके प्रति राग-द्वेष नहीं करने वाला संवृत्त साधु मन वचन और काया से गुप्त होकर इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ दृढ़तापूर्वक धर्म का आचरण करे। २. चक्षुरिन्द्रिय संयम - सचित्त-स्त्री, पुरुष, बालक और पशु-पक्षी आदि, अचित्तभवन, वस्त्राभूषण एवं विविध चित्रादि, मिश्र-वस्त्राभूषण युक्त स्त्री पुरुषादि के मनोरम तथा आह्लादकारी रूप आँखों से देख कर उन पर अनुराग नहीं लावे। काष्ट, वस्त्र और लेप से बनाये हुये चित्र, पाषाण और हाथी दाँत की बनाई हुई पाँच वर्ण और अनेक आकार युक्त मूर्तियां देख कर मोहित नहीं बने। इसी प्रकार गुंथी हुई मालाएं, वेष्टित किये हुए गेंद आदि, चपडी लाख आदि भरकर एक-दूसरे से जोड़कर समूह रूप से बनाये हुए गजरे आदि और विविध प्रकार की मालाएं देख कर आसक्त नहीं बने। मन एवं नेत्र को अत्यन्त प्रिय एवं सुखकर लगने वाले वनखंड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर, छोटे जलाशय, पुष्करणी, बावड़ी, दीर्घिका, गुंजालिका, सरोवर की पंक्ति, सागर, धातुओं की खानों की पंक्तियां, खाई, नदी, सरोवर, तालाब और नहर आदि उत्पल-कमल, पद्म-कमल आदि विकसित एवं सुशोभित पुष्प जिन पर अनेक प्रकार के पक्षियों के जोड़े क्रीड़ा करते हैं, सजे हुए मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवकुल, सभा, प्याऊ, मठ, सुन्दर शयन, आसन, पालकी, रथ, शकट, यान, युग्य, स्यन्दन, स्त्री पुरुषों का समूह जो अलंकृत एवं विभूषित हों, सौम्य एवं दर्शनीय हों और पूर्वकृत तप के प्रभाव से सौभाग्यशाली तथा आकर्षित हों जनमान्य हों, इन सबको देख कर साधु उनमें आसक्त नहीं बने। इसी प्रकार नट, नर्तक, जल्ल-मल्ल मौष्टिक, विडम्बक, कथक, प्लवक, लासक, आख्यायक, लंख, मंख, तूणइल्ल, तुम्बवीणक और तालाचार आदि अनेक प्रकार के मनोहर खेल करने वाले और इसी प्रकार के अन्य मनोहरी रूप देखकर साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए न उनमें लीन होना चाहिये। यावत् उन रूपों का स्मरण एवं चिन्तन भी नहीं करना चाहिए। मन को बुरे लगने वाले अशुभ दृश्यों को देखकर मन में द्वेष नहीं लावे। वे अप्रिय रूप कैसे हैं ? गण्डमाला का रोगी, कोढ़ी, कटे हुए हाथ वाला या जिसका एक हाथ या एक पांव छोटा हो, जलोदरादि. उदर रोग वाला, दाद से विकृत शरीर वाला, पांव में श्लीपद रोग हो, कुबड़ा, बौना, लंगड़ा, जन्मान्ध, काणा, सर्पि रोगवाला, शूल रोगी, इन व्याधियों से पीड़ित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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