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________________ १७२ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम .0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रमाण से अधिक खावे। साधु उतना ही भोजन करे, जितने से उसकी संयम-यात्रा का निर्वाह हो, चित्त में विभ्रम नहीं हो और धर्म से भ्रष्ट भी न हो। सरस आहार के त्याग रूप इस समिति का पालन करने से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह मैथुन विरत. मुनि, इन्द्रियजन्य विकारों से रहित, जितेन्द्रिय होकर ब्रह्मचर्य गुप्ति का पालक होता है। साधु मद्य मांस का तो सर्वथा त्यागी ही होता है। पांचवें महाव्रतकी पांच भावनाएं १. श्रोत्रेन्द्रिय संयम - प्रिय एवं मनोरम शब्द सुन कर उनमें राग नहीं करना चाहिए। वे मनोरम शब्द कैसे हैं? लोगों में बजाये जाने वाले मृदंग, पणव, दर्दुर, कच्छपी, वीणा, विपंची, वल्लकी, सुघोषा, नन्दी, उत्तम स्वर वाली परिवादिनी, बंसी, तूणक, पर्वक, तंती, तल, ताल। इन वाद्यों की ध्वनि, इनके निर्घोष और गीत सुन कर इन पर राग नहीं करे तथा नट, नर्तक, रस्सी पर किये जाने वाले नृत्य, मल्ल, मुष्टिक (मुक्के से लड़ने वाले), आख्यायक (कहानी सुनाने वाले), लंख (बांस पर खेलने वाले), मंख (चित्रपट बताने वाले), तूण इल्ल, तुम्ब वीणिक और तालाचर से किये जाने वाले अनेक प्रकार के मधुर स्वर वाले गीत सुन कर आसक्त नहीं बने। कांची, मेखला, कलापक, प्रतारक, प्रहेरक, पायजालक, घण्टिका, किंकिणी, रत्नजालक, क्षुद्रिका, नूपुर, चरणमालिका और जाल की शब्द ध्वनि सुन कर तथा लीला पूर्वक गमन करती हुई युवतियों के आभूषणों के टकराने से उत्पन्न ध्वनि, तरुणियों के हास्य वचन, मधुर एवं मञ्जुल कण्ठ स्वर, प्रशंसायुक्त मीठे वचन और ऐसे ही अन्य मोहक शब्द सुन कर साधु आसक्त नहीं बने, रंजित नहीं होवे, गृद्ध एवं मूर्च्छित नहीं बने, स्व-पर घातक नहीं होवे, लुब्ध और प्राप्ति पर तुष्ट नहीं हो, न हंसे और उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करे। . इस प्रकार कानों से अरुचिकर लगने वाले अशुभ शब्द सुनाई दे तो द्वेष नहीं करे। वे कटु लगने वाले शब्द कैसे हैं? - आक्रोशकारी, कठोर, निन्दायुक्त, अपमानजनक, तर्जना, निर्भर्त्सना, दीप्त (कोप युक्त), त्रासोत्पादक, अव्यक्त रुदन, रटन (जोर से रोने रूप), आक्रन्दकारी, निर्घोष, रसित (सूअर की बोली के समान), कलुण (करुणाजनक), विलाप के शब्द और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ अशुभ शब्द सुनाई देने पर साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए। ऐसे अप्रिय शब्द एवं शब्द करने वालों पर घृणा तथा उनका छेदन, भेदन और वध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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