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श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं का विस्तार १७१ .0000000000000000meanemamannamannamanna.ma.mmmmmm.namakwanarton स्त्री सम्बन्धी कथा से निवृत्त रहने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र रहती है। इस प्रकार निर्दोषतापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालक साधु इन्द्रियों के विषयों से विरत रह कर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है।
३. स्त्रियों के रूप दर्शन का त्याग - ब्रह्मचारी पुरुष स्त्रियों की हास्य-मुद्रा, रागवर्द्धक वचन, विकारोत्पादक चेष्टा, कटाक्षयुक्त दृष्टि, चाल, विलास (हाव-भाव), क्रीड़ा, कामोत्पादक श्रृंगारिक चेष्टाएं, नाच, गीत, वाद्य, शरीर का गठन एवं निखार, वर्ण (रंग), हाथ, पांव, आंखें, लावण्य, रूप, यौवन, पयोधर, ओष्ठ, वस्त्र और आभूषण आदि से की हुई शरीर की शोभा और जंघा आदि गुप्त अंग तथा इसी प्रकार के अन्य दृश्य नहीं देखे। इन्हें देखने की चेष्टा तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात एवं उपघात करने वाली है और पाप-कर्म युक्त है। ब्रह्मचर्य के पालक को स्त्रियों के रूप आदि का मन से भी चिन्तन नहीं करना चाहिये, न आंखों से देखना चाहिए और न ही वचन से रूप आदि का वर्णन करना चाहिए। इस प्रकार स्त्रियों के रूप दर्शनं त्याग रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। वह साधु मैथुन से निवृत्त एवं इन्द्रिय लोलुपता से रहित होकर जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता है।
४. पूर्व भोग चिन्तन त्याग - गृहस्थ अवस्था में भोगे हुए कामभोग और की हुई क्रीड़ा तथा मोहक सम्बन्ध स्त्री-पुत्र आदि के स्नेहादि का स्मरण, चिन्तन नहीं करे। इत्यादि रूप से पूर्वावस्था के कामभोगों का स्मरण नहीं करने रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा भावित होती है। ऐसा साधक इन्द्रियों के विकारों से रहित, जितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचर्य गुप्ति का धारक होता हैं।
साधु के लिये स्त्री सम्बन्धी बातों का वर्जन किया गया है। साध्वी के लिये ये ही सब पुरुष सम्बन्धी बातें वर्जन करना चाहिए।
५. स्निग्ध सरस भोजन त्याग - जो आहार घृतादि स्निग्ध पदार्थों से पूर्ण हो, जिसमें रस टपकता हो, ऐसे विकारवर्द्धक आहार का साधु को त्याग करना चाहिए। खीर, · दही, दूध, मक्खन, तेल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु आदि मिष्ठानों का नित्य आहार करने से , शरीर में विकार उत्पन्न होता है। इसलिये ऐसे प्रणीत रस का त्याग करना चाहिए। जिस आहार के खाने से दर्प - विकार उत्पन्न हो और वृद्धि हो उसका नित्य सेवन नहीं करे, न दिन में ही अधिक बार भोजन करे तथा शाक, दाल आदि का भी अधिक सेवन नहीं करे। न
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