________________
१६६
आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम
___२. को त्याग भावना - साधक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी मनुष्य का चांडिक्य-प्रचण्ड-रौद्र रूप हो जाता है। क्रोधावेश में वह झूठ भी बोल सकता है। पिशुनता - चुगली भी कर सकता है और कटु एवं कठोर वचन भी बोल सकता है। वह मिथ्या, पिशुन
और कठोर ये तीनों प्रकार के वचन एक साथ बोल सकता है। क्रोधी मनुष्य क्लेश, वैर और विकथा कर सकता है। वह सत्य का हनन कर सकता है, शील का हनन कर सकता है। क्रोधी मनुष्य दूसरों के लिए द्वेष का प्रात्र होता है। क्रोधाग्नि से जलता हुआ मनुष्य उपरोक्त दोष और ऐसे अन्य अनेक दोष पूर्ण वचन बोलता है। इसलिए दूसरे महाव्रत के पालक को क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध का त्याग कर क्षमा को धारण करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। ऐसे साधक के हाथ, पाँव, आँखें और वचन संयम में स्थित पवित्र रहते हैं। ऐसा शूरवीर साधक सत्यवादी एवं सरल होता है।
३. लोभ-त्याग भावना - सत्य महाव्रत के पालक को लोभ से दूर रहना चाहिए। लोभ से प्रेरित मनुष्य का सत्य व्रत टिक नहीं सकता। वह झूठ बोलने लगता है। लोभ से । ग्रसित मनुष्य क्षेत्र, वास्तु, कीर्ति, ऋद्धि, सुख, खानपान, पीठ फलक, शय्या संस्तारक, आसन, शयन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंच्छन, शिष्य और शिष्या के लिए और इसी प्रकार के अन्य सैंकडों कारणों से झूठ बोल सकता है। इसलिए मिथ्या भाषण के मूल इस लोभ का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए। इस प्रकार लोभ का त्याग करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है। उस साधक के हाथ पाँव, नेत्र और सुख संयम से शोभित होते हैं। वह शूरवीर साधक सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है। ___४. भय त्याग भावना - भय का त्याग कर निर्भय बनने वाला साधक सत्य महाव्रत का पालक होता है। भयग्रस्त मनुष्य के सामने सदैव भय के निमित्त उपस्थित रहते हैं। भयाकुल मनुष्य किसी का सहायक नहीं बन सकता। भयाक्रान्त मनुष्य भूतों के द्वारा ग्रसित हो जाता है। एक डरपोक मनुष्य दूसरों को भी भयभीत कर देता है। डरपोक मनुष्य डर के मारे तप और संयम को भी छोड़ देता है। वह उठाये हुए भार को बीच में ही पटक देता है, पार नहीं पहुँचाता। भयभीत मनुष्य सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग में विचरण करने में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार भय को पाप का कारण जान कर त्याग करके निर्भय होना चाहिए। भय के कारण व्याधि, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और ऐसे अन्य प्रकार के भयों से साधु को भयभीत नहीं होना चाहिए। धैर्य धर कर निर्भय होने से अन्तरात्मा भावित होती है, निर्मल रहकर बलवान् बनती
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org