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श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं का विस्तार
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तथा प्राण धारण करने के लिए भोजन करे। इस प्रकार आहार समिति का सम्यक् रूप से पालन करने वाले साधु की अन्तरात्मा भावित होती है। उसका चारित्र और भावना निर्मल विशुद्ध एवं अखण्डित होती है। वह संयमवंत अहिंसक साधु मोक्ष का उत्तम साधक होता है।
५. आदान-निक्षेपणा समिति भावना - यह पाँचवीं भावना है। संयम साधना में उपयोगी उपकरणों को यतना पूर्वक ग्रहण करना एवं यतना पूर्वक रखना। साधु को पीठ (बाजोट), फलक (पाट) शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका, पादपोंछन आदि उपकरण संयम वृद्धि के लिए तथा वायु, आतप, दंशमशक और शीत से बचाव करने के लिए है। इन्हें राग द्वेष रहित होकर धारण करना चाहिए और उपयोग में लेना चाहिए। इन उपकरणों की प्रतिलेखना (निरीक्षण करना), प्रस्फोटना (झटकना), प्रमार्जना (रजोहरण से पूंजना) करनी चाहिए। दिन में और रात में सदैव अप्रमत्त रहता हुआ मुनि भण्डोपकरण ग्रहण करे, उठावे और रखे। इस प्रकार आदान निक्षेपणा समिति का यथावत् पालन करने से साधु की अन्तरात्मा अहिंसा धर्म से प्रभावित होती है। उसका चारित्र और आत्म परिणाम निर्मल विशुद्ध होता है और महाव्रत अखण्डित रहता है। वह संयमवान् अहिंसक साधु मोक्ष का उत्तम साधक होता है।
दूसरे महाव्रत की पाँच भावनाएं १. अनुवीचि समिति भावना (बोलने की विधि) - मिथ्याभाषण से निवृत्त होने रूप दूसरे महाव्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएं हैं। इनमें से पहली भावना-सम्यक् प्रकार से विचार पूर्वक बोलना। गुरु से सम्यक् प्रकार से श्रवण करके संवर के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला, परमार्थ (मोक्ष) का साधक ऐसे सत्य को भली प्रकार से जानने के बाद बोलना चाहिए। बोलते समय न तो वेग पूर्वक (व्याकुलता युक्त) बोलना चाहिए, न त्वरितता से (शीघ्रता पूर्वक) और न चपलता से बोलना चाहिए। भले ही वे वचन सत्य हों। ऐसे सावध वचनों का त्याग कर हितकारी, परिमित अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने वाले शुद्ध हेतु युक्त
और स्पष्ट वचन विचार पूर्वक बोलना चाहिए। इस प्रकार इस 'अनुवीचिसमिति' रूप प्रथम भावना से साधक की अन्तरात्मा प्रभावित होती है। इससे साधक के हाथ, पाँव, आँखें व मुँह संयमित रहते हैं। इस तरह करने से वह साधक शूरवीर होता है। वह सत्य एवं सरलता से सम्पन्न होता है।
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