________________
श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं का विस्तार
१६७
है। निर्भय साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख आदि संयमित रहते हैं। वह शूरवीर साधक सत्यधर्मी होता है एवं सरलता के गुण से सम्पन्न होता है।
५. हास्य त्याग भावना - दूसरे महाव्रत के पालक को चाहिए कि वह हास्य नहीं करे। हास्य करने वाला मनुष्य मिथ्या और असत्य भाषण कर सकता है। हास्य दूसरे व्यक्ति का अपमान करने में कारणभूत बन जाता है। पराई निंदा करने में रुचि रखने वाले भी हास्य का अवलम्बन लेते हैं। हास्य दूसरों के लिए पीड़ाकारी होता है। हास्य से चारित्र का भेदन विनाश होता है। हास्य एक दूसरे के मध्य होता है और हास्य हास्य में परस्पर की गुप्त बातें प्रकट हो सकती है। एक दूसरे के गर्हित कर्म प्रकट हो सकते हैं। हास्य करने वाला व्यक्ति कान्दर्पिक और आभियोगिक भाव को प्राप्त होकर वैसी गति का बंध कर सकता है। हंसोड मनुष्य आसुरी एवं किल्विषी भाव को प्राप्त कर वैसे देवों में उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार हास्य को अहितकारी जान कर त्याग करना चाहिए। इससे अन्तरात्मा पवित्र होती है। ऐसे साधक के हाथ, पाँव, नेत्र और मुख संयमित रहते हैं। वह हास्य त्यागी, शूरवीर, सच्चाई और सरलता से सम्पन्न होता है।
तीसरे महाव्रत की पाँच भावनाएं १. निर्दोष उपाश्रय - १. देवकुल - व्यंतरादि के मन्दिर २. सभा - जहाँ लोग एकत्रित होकर मंत्रणा करते हैं ३. प्याऊ ४. आवसथ - संन्यासी आदि का मठ ५. वृक्ष के नीचे ६. आराम - बगीचा ७. कन्दरा - गुफा ८. आकर - खान ९. पर्वत की गुफा १०. कर्म - लोहार आदि की शाला जहाँ लोहे पर क्रिया की जाती है, कुंभकार के स्थान ११. उद्यान - उपवन १२. यानशाला - रथ गाड़ी आदि वाहन रखने के स्थान १३. कुप्यशाला - घर के बरतन आदि रखने का स्थान १४. मण्डप - उत्सव का स्थान या विश्राम स्थल १५. शून्य घर १६. श्मशान १७.लयन - पर्वत की तलहटी में बना हुआ स्थान १८. आपण - दुकान और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो सचित्त जल, मिट्टी, बीज, हरी वनस्पति और बेइन्द्रियादि त्रस प्राणियों से रहित हो, गृहस्थ ने अपने लिये बनाये हों, प्रासुक (निरवद्य) हों, विविक्त हो (स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित हो) और प्रशस्त (निर्दोष एवं शुभ) हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को ठहरना चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org