________________
१५८
आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . ७९. पुलिपच्छासंथव (पूर्व पश्चात् संस्तव) - आहार प्राप्ति के लिए दाता की दान से पहले या पीछे (उसके सामने) भाट के समान प्रशंसा करना 'पूर्व-पश्चात् संस्तव' है। ..८०. विज्जा (विद्या) - जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो या जो साधना से सिद्ध हो उसका प्रयोग करके या उसे सीखा कर आहारादि लेना 'विद्या' है।
८१. मते (मंत्र) - जिसका अधिष्ठाता देव हो या जो बिना साधना अक्षर विन्यास मात्र से सिद्ध हो, उसका प्रयोग करके या सिखा कर आहारादि लेना 'मंत्र' है।
८२. चुण्ण (चूर्ण) - अदृश्य होना, मोहित करना, स्तंभित करना, आदि बातें जिससे हो सके ऐसे पदार्थ का व्यंजन आदि का प्रयोग करके या सिखा कर आहारादि लेना 'चूर्ण' है।
८३. जोगे (योग) - जिसका लेप करने पर आकाश में उड़ना, जल पर चलना आदि बातें हो सकें ऐसे पदार्थ का प्रयोग करके या सिखा कर आहारादि लेना 'योग' है। ..
८४. मूलकम्मे (मूलकर्म) - गर्भस्तंभन, गर्भाधान, गर्भपात आदि बातें जिससे हो सकें . ऐसी जड़ी बूटी का या सामान्य जड़ी बूटी दिखा कर आहारादि लेना 'मूलकर्म' है।'
एषणा के दस दोष . ८५. संकिय (संकित) - दोष की शंका होने पर भी आहारदि लेना 'शंकित' है।
८६. मक्खिय (म्रक्षित) - दाता, दान के पात्र या दाता के द्रव्य सचित पृथ्वी, पानी, अग्नि या वनस्पति से संघट्टे युक्त हो तो उस दाता से या उस दान के पात्र से द्रव्य लेना 'म्रक्षित' है। .
८७. निक्खित्त (निक्षिप्त) - दाता, दान के पात्र या दान के द्रव्य सचित पृथ्वी, पानी, अग्नि या वनस्पति पर रखे हो उस दाता से या उस दान के पात्र से द्रव्य लेना 'निक्षिप्त' है।
८८. पिहिय (पिहित) - दाता, दान के पात्र या दान के द्रव्य के ऊपर सचित पृथ्वी, पानी, अग्नि या वनस्पति हो उस दाता से या उस दान के पात्र से वे द्रव्य लेना 'पिहित' है।
८९. साहरिय (साहत) - पात्र में पहले से रखे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से देना साहत हैं। अकल्पनीय आहार से आशय यह एषणा दोष है। अतः सचित्तादि समझना, आधाकर्मादि नहीं है।
९०. दायग (दायक) - जो दान देने के योग्य न हो, उनसे आहारादि लेना दायक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org