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श्रमण आवश्यक सूत्र - १२५ अतिचारों का समुच्चय पाठ
१५९ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 है। जैसे अबोध बालक (अबोध का व्यापक अर्थ घर की कौनसी चीज देने की है या नहीं कितनी देनी हैं ऐसा न जानने वाला घर का बालक या दूसरा व्यक्ति) अंधे, लुले, लंगड़े, सात माह से अधिक की गर्भवती बहिन (खड़ी हुई, बैठ कर या बैठी हुई उठकर देने लगे) आदि से लेना 'दायक' है। जुगुप्सनीय कुल वाले व्यक्ति यदि महाजन आदि के यहाँ की कोई वस्तु देवें तो भी नहीं लेना (नौकर मुनीम आदि किसी भी रूप में)।
९१. उम्मीसे (उन्मिश्र) - सचित्त मिश्रित आहारादि लेना 'उन्मिश्र' है। (ऊपर से धनिया आदि डाले हुए आदि)
९२. अपरिणय (अपरिणत) - पूरा अचित न बना हुआ आहारादि लेना अपरिणत है। (अधकच्चा, अपक्व, दुष्पक्व, कच्चे फल) -
९३. लित्त (लिप्त) - सचित्त मिट्टी जल आदि से तत्काल लीपी, पोछी हुई, धोई हुई भूमि पर चल कर दिया हुआ आहारादि लेना 'लिप्त' है। जल मिट्टी अचित्त हो जाने पर भी कुछ काल तक भूमि गिली रहती है। उस पर चलने से चिह्न पड़ जाने से पश्चात् कर्म रूप विराधना संभव है अत: टालना चाहिये।
- ९४. छड्डिय (छर्दित) - घुटने से अधिक ऊपर से बूंद, कण आदि गिराते हुए दिया जाता हुआ आहारादि लेना 'छर्दित' है।
. माण्डला के पाँच दोष ९५. संयोजना - किसी द्रव्य में मनोज्ञ रूप, गंध, रस, स्वाद या स्पर्श उत्पन्न करने के लिये उसमें अन्य द्रव्यों को मिला कर भोगना 'संयोजना' है।
९६. अप्रमाण. - प्रमाण से अधिक भोजन करना अप्रमाण है। सामान्यतः स्वस्थ, सबल और युवावस्था वाले पुरुष, स्त्री और नपुंसक के लिए क्रमशः बत्तीस, अट्ठावीस और चौबीस कवल ग्रास। यह संपूर्ण आहार एक दिन का प्रमाण माना गया है। प्रमाण के उपरांत किया गया आहार प्रमाद और विकार का कारण होने से इसे दोष माना है। - ९७. इंगाल - सुस्वाद भोजन को प्रशंसा करते हुए खाना अंगार है। यह चारित्र को जला कर कोयल स्वरूप निस्तेज बनाती है। इसलिए इस दोष को अंगार कहते हैं।
९८. धूम - नीरस आहार की निंदा करते हुए खाना धूम है। ऐसा करने से संयम का धुआँ हो जाता है इसलिए इस दोष को धूम कहते हैं।
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