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________________ श्रमण आवश्यक सूत्र - १२५ अतिचारों का समुच्चय पाठ १५७ ६७. अणिसिडे (अनिःसृष्ट) - जिस आहारादि के अनेक स्वामी हो, उसके अन्य स्वामियों की स्वीकृति नहीं हुई हो या उसका बंटवारा न हुआ हो, ऐसी दशा में उस आहारादि को लेना ‘अनिःसृष्ट' है। ६८. अझोयरए (अध्यवपूरक) - पहले बनते हुए जिस आहारादि में साधुओं की लिए नई सामग्री मिलाई हो वैसा आहारादि लेना ‘अध्यवपूरक' है। उत्पादना के सोलह दोष ६९. धाई (धात्री) - धाय का काम करके अर्थात् बच्चों को खिलाने पिलाने का काम करके आहारादि लेना 'धात्री' है। . ७०. दूई (दूती) - दूती का काम संदेश को पहुँचाने लाने का काम करके आहारादि लेना 'दूती' है। ७१. निमित्ते (निमित्त) - बाह्य निमित्त से भूत, भविष्य, वर्तमान काल के लाभअलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण को बतला कर या निमित्त सिखला कर आहारादि. लेना 'निमित्त' है। . ७२: आजीव (आजीव) - अपने जाति, कुल संबंध पूर्व जीवन के व्यवसाय आदि को प्रकट करके आहारादि लेना 'आजीव' है। ७३. वणीमगे (वनीपक) - एक भिखारी के समान, काया से दीनता प्रकट करके वचन से दीन भाषा बोल कर तथा मन में दीनता लाकर आहारादि लेना। ७४. तिगिच्छ। (चिकित्सा) - चिकित्सा करके या बता कर. आहारादि लेना "चिकित्सा' है। _____७५. कोहे (क्रोध) - क्रोध करके गृहस्थ को श्राप आदि का भय दिखा कर आहारादि लेना। ७६. माणे (मान) - मान करके गृहस्थ को अपनी लब्धि आदि दिखा कर आहारादि लेना। ___७७. माया (माया) - माया (कपट) करके गृहस्थ को अन्य वेशं बदल कर आदि दिखा कर आहारादि लेना। ७८. लोभे (लोभ) - लोभ करके मर्यादा से अधिक तथा श्रेष्ठ आहारादि लेना 'लोभ' है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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