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प्रतिक्रमण - प्रतिज्ञा सूत्र (नमो चउवीसाए का पाठ)
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है कि 'मैं धर्म की प्रीति (प्रतीति)करता हूं' प्रीति होते हुए भी कभी विशेष स्थिति में रुचि नहीं रहती अतः कहता है कि 'मैं धर्म के प्रति सदाकाल रुचि रखता हूं। कितने ही संकट हों, आपत्तियाँ हों, परंतु सच्चे साधक की धर्म के प्रति कभी भी अरुचि नहीं होती। वह जितना ही धर्माराधन करता है, उतनी ही उस ओर रुचि बढ़ती जाती है। धर्माराधन के मार्ग में न सुख बाधक बन सकता और न दुःख। दिन रात अविराम गति से हृदय में श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की ज्योति प्रदीप्त करता हुआ साधक, अपने धर्मपथ पर अग्रसर होता रहता है। ..
फासेमि पालेमि अणुपालेमि (स्पर्श करता हूँ, पालन करता हूँ, अनुपालन करता हूँ) - साधक श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से आगे बढ़ कर कहता है - "मैं धर्म का स्पर्श करता हूँ, उसे आचरण के रूप में स्वीकार करता हूँ।" "केवल स्पर्श ही नहीं, मैं प्रत्येक स्थिति में धर्म का पालन करता हूँ - स्वीकृत आचार की रक्षा करता हूँ।" "एक दो बार ही पालन करता हूँ, यह बात नहीं। मैं धर्म का नित्य निरन्तर पालन करता हूँ, बार बार पालन करता हूँ, जीवन के हर क्षण में पालन करता हूँ।" -
अब्भुद्धिओमि (अभ्युत्थित होता हूँ) - साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं धर्म की श्रद्धा, प्रतीति, स्पर्शना, पालना तथा अनुपालना करता हुआ धर्म की आराधना में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित होता हूँ और धर्म की विराधना से निवृत्त होता हूँ।
परिजाणामि (जानता हूँ और छोड़ता हूँ) - 'परिजाणामि' का अर्थ न केवल जानना है और न केवल छोड़ना है अपितु सम्मिलित अर्थ है - जान कर छोड़ना। आचार्य हरिभद्र ने इसका अर्थ किया है - 'ज्ञ-परिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान परिज्ञया प्रत्याख्यामीत्यर्थः । ज्ञ परिज्ञा का अर्थ, हेय आचरण को स्वरूपतः जानना है और प्रत्याख्यान परिज्ञा का अर्थ, उसका प्रत्याख्यान करना है - उसको छोड़ना है। प्रत्याख्यान परिज्ञा से पहले ज्ञ-परिज्ञा अत्यंत आवश्यक है। जान कर समझ कर विवेकपूर्वक किया हुआ प्रत्याख्यान ही सुप्रत्याख्यान होता है।
'असंजर्म परियाणामि संजमं उवसंपञ्जामि.....' आदि आठ बोल जान कर छोड़ने योग्य हैं तो इससे विपरीत आठ बोल स्वीकार करने योग्य हैं, यथा -
१. असंयम - प्राणातिपात आदि २. अब्रह्मचर्य - मैथुन वृत्ति ३. अकल्प - अकृत्य ४. अज्ञान - मिथ्याज्ञान ५. अक्रिया - असत् क्रिया ६. मिथ्यात्व - अतत्त्वार्थ श्रद्धान
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