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आवश्यक सूत्रं - चतुर्थ अध्ययन
अर्थात् जैन धर्म का यह सिद्धान्त सर्वथा सत्य है कि सिद्ध होने पर आत्मा सब प्रकार के शुभाशुभ कर्मों से सदा के लिए मुक्त हो जाती है। ___परिणिव्वायंति (परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं) - परिनिर्वाण - पूर्ण आत्म शांति को प्राप्त करते हैं।
'परिणिव्वायंति' शब्द के द्वारा यही स्पष्टीकरण किया गया है कि जैनधर्म का निर्वाण न आत्मा का बुझ जाना है और न केवल दुःखाभाव का होना है। वह तो अनंत सुखस्वरूप है और वह सुख भी ऐसा है जो कभी दु:ख से संप्रक्त नहीं होता.।. . .. सव्वदुक्खाणमंतं करेंति (सब दुःखों का अंत करते हैं) - मोक्ष की विशेषताओं को बताते हुए सबके अंत में कहा गया है कि 'धर्माराधक साधक मोक्ष प्राप्त कर शारीरिक तथा मानसिक सब प्रकार के दुःखों का अंत कर देता है।'
प्रस्तुत विशेषण का सारांश पहले के विशेषणों में भी आ चुका है। यहां स्वतंत्र रूप में इसका उल्लेख सामान्यतः मोक्ष स्वरूप का दिग्दर्शन कराने के लिए है।
सदहामि पत्तियामि रोएमि (श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, रुचि करता हूं) समकित छप्पनी में कहा है कि -
तर्क अगोचर सद्द हो, द्रव्य धर्म अधर्म। केई प्रतीते युक्ति सु, पुण्य पाप सकर्म॥ तप चारिो ने रोचवो, कीजे तस अभिलाष। श्रद्धा प्रत्यय रुचि तिह, जिन आगम साख॥
अर्थात् - धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों पर विश्वास श्रद्धा है। व्याख्याता के साथ तर्क वितर्क करके युक्तियों द्वारा पुण्य पाप आदि को समझ कर विश्वास करना प्रतीति है। व्याख्याता द्वारा उपदिष्ट विषय में श्रद्धा करके उसके अनुसार तप-चारित्र आदि का सेवन करने की इच्छा करना रुचि है।
धर्म के लिए अपनी हार्दिक श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए साधक कहता है कि मैं धर्म की श्रद्धा करता हूं, प्रतीति (प्रीति) करता हूं और रुचि करता हूं।
प्रीति का अर्थ है प्रेम भरा आकर्षण और रुचि का अर्थ है अभिरुचि अर्थात् उत्सुकता। सामान्य प्रेमाकर्षण को प्रीति कहते हैं और विशेष प्रेमाकर्षण को अभिरुचि। अस्तु, साधक कहता है, मैं धर्म की श्रद्धा करता हूं। श्रद्धा ऊपर मन से भी की जा सकती है अतः कहता
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