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________________ प्रतिक्रमण - प्रतिज्ञा सूत्र (नमो चउवीसाए का पाठ) ११३ १३. सव्वदुक्खपहीणमम्गं (सर्वदुःखप्रहीण मार्ग) - धर्म का अंतिम विशेषण सर्वदुःखप्रहीण मार्ग है। उक्त विशेषण में धर्म की महिमा का विराट् सागर छुपा हुआ है। संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से संतप्त है। वह अपने लिए सुख चाहता है, आनंद चाहता है। आनंद भी वह, जो कभी दुःख से स्पृष्ट न हो। दुःखों का सर्वथा अभाव तो मोक्ष में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं और वह मोक्ष, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप धर्म की साधना से ही प्राप्त हो सकता है। यानी सभी दुःखों का पूर्णतया क्षय कर शाश्वत सुख प्राप्त करने का मार्ग जैनधर्म है। अब इस धर्म की आराधना का फल बतलाने के लिए निम्न शब्दों का प्रयोग किया गया है - सिझंति (सिद्ध होते हैं) - धर्म की आराधना करने वाले ही सिद्ध होते हैं। आराधनासाधना की पूर्णाहुति का नाम ही सिद्धि है। आचार्य जिनदास महत्तर के अनुसार - 'सिज्झति-सिद्धा भवंति, परिनिष्ठितार्था भवन्ति' - आत्मा के अनंत गुणों का पूर्ण विकास हो जाना ही सिद्धत्व माना गया है। बुझंति (बुद्ध होते हैं) - बुद्ध का अर्थ होता है - पूर्ण ज्ञानी। शंका - आध्यात्मिक विकास क्रम स्वरूप चौदह गुणस्थानों में अनंतज्ञान अनंतदर्शन आदि तेरहवें गुणस्थान में ही प्राप्त हो जाते हैं और मोक्ष चौदहवें गुणस्थान के बाद होती है अतः ' सिझंति' के बाद 'बुज्झंति' कहने का क्या अर्थ है ? विकास क्रम के अनुसार तो बुज्झति का प्रयोग सिझंति के पहले होना चाहिए था? समाधान - यह सत्य है कि केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त हो जाता है, अतः विकास क्रम के अनुसार बुद्धत्व का नम्बर पहला है और सिद्धत्व का दूसरा। परंतु यहां सिद्धत्व के बाद जो बुद्धत्व कहा है उसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व बना रहता है, नष्ट नहीं होता। मुच्चंति (मुक्त होते हैं) - जैनदर्शन में 'कृत्स्न कर्म क्षयो मोक्षः' कहा है अर्थात् जब तक एक भी कर्म परमाणु आत्मा से संबंधित रहता है तब तक मोक्ष नहीं हो सकती। सब कर्मों का क्षय होने पर ही सिद्धत्व भाव प्राप्त होता है, मोक्ष होता है। सिद्धत्व का अर्थ ही मुक्तत्व - कर्मों से मुक्त होना है। किंतु कुछ दार्शनिक मोक्ष अवस्था में भी शुभ कर्म की सत्ता मानते हैं इसका निराकरण करने के लिए ही 'मुच्चति' शब्द का प्रयोग किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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