________________
११२
आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
है, सरलता, मायाशल्य को और निर्लोभता, निदान शल्य को, अतएव जैनधर्म को शल्यकर्तन कहना उपयुक्त है।
७. सिद्धिमग्गं (सिद्धिमार्ग) - आचार्य हरिभद्र सिद्धि' का अर्थ करते हैं - हितार्थ प्राप्ति। आचार्यकल्प पं. आशाधरजी ने मूलाराधना की टीका में 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धि:'अपने आत्मस्वरूप की उपलब्धि को 'सिद्धि' कहा है। मार्ग का अर्थ है - उपाय। आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय, सिद्धिमार्ग है। सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय, सिद्धिमार्ग है। जिसको सिद्धत्व प्राप्त करना है उसको शुद्ध भाव से सम्यग्दर्शन आदि धर्म की साधना करनी होगी।
८. मुत्तिमागं (मुक्ति मार्ग) - कर्मों की विच्युति, मुक्ति कहलाती है। जैनधर्म, मुक्ति मार्ग है। कर्मबंधन से मुक्ति का साधन है।
९. णिज्जाणमग्गं (निर्याण मार्ग) - आचार्य हरिभद्र निर्याण का अर्थ मोक्ष पद करते हैं। जहां जाया जाता है वह यान होता है। निरूपम यान निर्याण कहलाता है। मोक्ष ही ऐसा पद है, जो सर्वश्रेष्ठ यान = स्थान है, अतः वह जैन आगम साहित्य में निर्याण पद वाच्य भी है। . ___आचार्य जिनदास निर्माण का अर्थ करते हैं - 'निर्याणं संसारात्पलायण' - संसार से निर्गमन। सम्यग्दर्शनादि धर्म ही अनंतकाल से भटकते हुए भव्य जीवों को संसार से बाहर निकालते हैं अतः संसार से बाहर निकलने का मार्ग होने से सम्यग्दर्शनादि धर्म 'निर्याण मार्ग' कहलाता है।
१०. णिव्वाणमग्गं (निर्वाण मार्ग) - आचार्य हरिभद्र कहते हैं - 'निर्वृति निर्वाणसकल कर्मक्षयजमात्यन्तिक सुखाभित्यर्थः' अर्थात् सब कर्मों के क्षय होने पर आत्मा को जो कभी नष्ट न होने वाला आत्यंतिक आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है, वह निर्वाण कहलाता है। निर्वाण का मार्ग सम्यग्दर्शन आदि रूप जैनधर्म है।
११. अवितहं (अवितथ) - अवितथ का अर्थ सत्य है। जिनशासन सत्य है, असत्य नहीं।
पहले सत्य शब्द का उल्लेख हुआ है वह विधानात्मक रूप था। किंतु अवितथ शब्द से असत्य का सर्वथा परिहार हो जाता है, पूर्ण यथार्थ सत्य का स्पष्टीकरण हो जाता है। अतः इसे पुनरुक्ति दोष का कारण नहीं समझना चाहिये।'
१२. अविसंधि (अविसन्धि) - अविसंधि का अर्थ है - सन्धि रहित। संधि बीच के अंतर को कहते हैं। जैनधर्म विच्छेदरहित अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वापर विरोध रहित है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org