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प्रतिक्रमण - प्रतिज्ञा सूत्र ( नमो चउवीसाए का पाठ )
'सद्भ्यो हितं सत्यं, सद्भूतं वा सत्यं' अर्थात् जो भव्यात्माओं के लिए हितकर हो
तथा सद्भूत हो वह सत्य है ।
२. केवलियं (कैवलिक, केवल ) और कैवलिक । 'केवल' का अर्थ है सर्वश्रेष्ठ है।
कैवलिक का अर्थ है - केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित अर्थात् प्रतिपादित । छद्मस्थ मनुष्य भूल कर सकता है अतः उसके बताए हुए सिद्धान्तों पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता परन्तु जो केवलज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वद्रष्टा हैं- त्रिकालदर्शी हैं, उनका कथन किसी प्रकार भी असत्य नहीं हो सकता ।
सम्यग्दर्शन आदि धर्म तत्त्व का निरूपण केवलज्ञानियों द्वारा हुआ है अतः वह पूर्ण सत्य
है, त्रिकालाबाधित है।
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३. पडिपुण्णं (प्रतिपूर्ण) जैन धर्म एक प्रतिपूर्ण धर्म है। आचार्य हरिभद्र प्रतिपूर्ण शब्द का अर्थ करते हैं - 'अपवर्ग-प्रापकैर्गुणैर्भृतमिति' अर्थात् - जो मोक्ष को प्राप्त कराने वाले सद्गुणों से पूर्ण भरा हुआ है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप जैनधर्म अपने आप में सब ओर से प्रतिपूर्ण है, किसी प्रकार खण्डित नहीं है ।
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४. या यं (नैयायिक) - आचार्य हरिभद्र नैयायिक का अर्थ करते हैं - 'नयनशील नैयायिक मोक्षगमक-मित्यर्थः 'जो नयनशील है, ले जाने वाला है वह नैयायिक है ।' सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष में ले जाने वाले हैं अतः नैयायिक कहलाते हैं।
आचार्य जिनदास नैयायिक का अर्थ करते हैं न्यायाबाधित। यथा 'न्यायेन चरति नैयायिक न्यायाबाधितमित्यर्थः' - सम्यग्दर्शन आदि जैनधर्म सर्वथा न्यायसंगत है। केवल आगमोक्त होने से ही मान्य है, यह बात नहीं है। यह पूर्ण तर्क सिद्ध धर्म है। यही कारण है कि जैनधर्म तर्क से डरता नहीं है अपितु तर्क का स्वागत करता है ।
५. संसुद्धं (संशुद्ध) - जैनधर्म परीक्षा की कसौटी पर पूर्ण शुद्ध है, सत्य है । वह धर्म ही क्या जो परीक्षा की आग में पड़ कर म्लान हो जाय ? जैनधर्म शुद्ध सोने की तरह खरा है ।
शल्य तीन हैं
६. सल्लगत्तणं (शल्यकर्तन) माया, निदान और मिथ्यात्व । इन शल्यों को काटने की शक्ति एक मात्र धर्म में ही है। सम्यग्दर्शन, मिध्यात्व शल्य को काटता
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केवलियं शब्द के संस्कृत रूपान्तर हैं केवल अद्वितीय सम्यग्दर्शन आदि तत्त्व अद्वितीय हैं,
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