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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
"णमो चउवीसाए तित्थयराणं उसभाइ महावीर पज्जवसाणाण" इस पाठ में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव से भगवान् महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। यह नियम है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों का स्मरण किया जाता है। युद्धवीर, युद्धवीरों का तो अर्थवीर, अर्थवीरों का स्मरण करते हैं। यह धर्म युद्ध है अतः यहां धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है। जैन धर्म के इन चौबीस तीर्थंकरों ने धर्मसाधना के लिए अनेकानेक भयंकर परीषह सहे और अंत में साधक से सिद्ध पद पर पहुंच कर अजर अमर परमात्मा हो गए। अतः उनका पवित्र स्मरण हम साधकों के दुर्बल मन में उत्साह, बल एवं स्वाभिमान की भावना प्रदीप्त करने वाला है। उनकी स्मृति हमारी आत्मशुद्धि को स्थिर करने वाली है। तीर्थंकर हमारे लिए अंधकार में प्रकाश स्तंभ के समान है। ____ वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकर हुए हैं उनमें भगवान् ऋषभदेव प्रथम और भगवान् महावीर स्वामी अंतिम (चौबीसवें) तीर्थंकर थे।
णिग्गंथं पावयणं (निग्रंथ प्रवचन) - यहां 'पावयण' विशेष्य है और “णिग्गर्थ' विशेषण है। णिग्गथं का संस्कृत रूप 'निग्रंथ' होता है। निग्रंथ का अर्थ है - धन, धान्य आदि बाह्य ग्रंथ और मिथ्यात्व अविरति, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आभ्यंतर ग्रंथ अर्थात् परिग्रह से रहित पूर्ण त्यागी एवं संयमी साधु।
जो रागद्वेष की गांठ को सर्वथा अलग कर देता है, तोड़ देता है वही निश्चय में निग्रंथ है। यहां निग्रंथ शब्द का यही अर्थ लिया गया है अतः सच्चे निग्रंथ तो अर्हन्त और सिद्ध ही है।
जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है वह सामायिक से लेकर बिंदुसार पूर्व तक का आगम साहित्य 'प्रवचन' है।
अतः निग्रंथ प्रवचन का अर्थ है - अर्हन्तों का प्रवचन अर्थात् जिनधर्म। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप रूप मोक्ष मार्ग ही जिनधर्म है।
निग्रंथ प्रवचन (जैन धर्म) की महिमा बताने के लिए सूत्रकार ने निम्न विशेषण प्रयुक्त किये हैं -
१. सच्च (सत्य) - रत्नत्रय रूप जैन धर्म सत्य है। जो असत्य है, अविश्वसनीय है वह धर्म नहीं अधर्म है। आचार्य जिनदास ने सच्चं शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है -
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