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________________ प्रतिक्रमण - प्रतिज्ञा सूत्र (नमो चउवीसाए का पाठ) १०९ इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थिर रहने वाले अर्थात् तदनुसार आचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध-सर्वज्ञ होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण-पूर्ण आत्म शांति को प्राप्त करते हैं, समस्त दुःखों का सदा काल के लिए अन्त करते हैं। ___मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हूँ रुचि करता हूँ स्पर्शना करता हूं, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ, विशेष रूप से पालना करता हूँ। . ___ मैं इस जिन धर्म (निग्रंथ प्रवचन) की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शना-आचरण करता हुआ, पालना करता हुआ, विशेष रूप से पालना करता हुआ उस धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित-तत्पर हूँ और धर्म की विराधना से पूर्णतया निवृत्त होता हूँ। असंयम को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से छोड़ता हूँ, संयम को स्वीकार करता हूँ। अब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हूँ, ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ, अकल्प को जानता हूँ और त्यागता हूँ कल्प को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को जानता हूँ और त्यागता हूँ ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, अक्रिया को जानता हूँ और त्यागता हूँ और क्रिया को स्वीकार करता हूँ। मिथ्यात्व को जानता हूँ तथा त्यागता हूँ, सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ। अबोधि को जानता हूँ और त्यागता हूँ बोधि को स्वीकार करता हूँ, उन्मार्ग को जानता हूँ और त्यागता हूँ और मार्ग को भावपूर्वक स्वीकार करता हूँ। . जो दोष मुझे याद हैं और जो याद नहीं हैं जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन सब दिवस संबंधी अतिचारों-दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। ___ मैं श्रमण हूँ, संयत-संयमी हूँ, विरत-सावध व्यापारों एवं संसार से निवृत्त हूँ, पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ एवं पापों का त्याग करने वाला हूँ, निदान शल्य से रहित दृष्टि संपन्न-सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ और माया सहित मृषावाद का परिहार करने वाला हूँ। ___ढाई द्वीप और दो समुद्र रूप मनुष्य क्षेत्र में पन्द्रह कर्म-भूमि क्षेत्रों में जो भी रजोहरण, मुखवस्त्रिका, पूंजनी एवं पात्र को धारण करने वाले तथा पांच महाव्रत, अठारह हजार शीलांग रूप रथ के धारण करने वाले एवं अक्षत आचार के पालक त्यागी साधु हैं उन सब को शिर से, मन से, मस्तक से वंदना करता हूँ। .. - विवेचन - प्रस्तुत प्रतिज्ञा सूत्र का एक-एक शब्द साधना को स्फूर्ति एवं प्रगति की दिव्य ज्योति को आलोकित करने वाला है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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