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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
१७. बहुत-से मनुष्यों का आधारभूत जो मनुष्य है, उसे हने।
१८. जो संयम लेने के तैयार हुआ है, उसकी संयम-रुचि हटावे तथा संयम लिये हुए को धर्म से भ्रष्ट करे। ____१९. तीर्थंकर के अवर्णवाद बोले।
२०. तीर्थंकर प्ररूपित न्याय मार्ग का द्वेषी बन कर उस मार्ग की निन्दा करे तथा उस मार्ग से लोगों का मन दूर हटावें।
२१. आचार्य, उपाध्याय, सूत्र विनय के सिखाने वाले पुरुषों की निन्दा करे, उपहास करे।
२२. आचार्य, उपाध्याय के मन को आराधे नहीं तथा अहंकार भाव के कारण भक्ति नहीं करे।
२३. अल्प शास्त्रज्ञान वाला होते हुए भी खुद को बहुश्रुत बतावे, अपनी झूठी प्रशंसा करे। २४. तपस्वी नहीं होते हुए भी, तपस्वी कहलावे।
२५. शक्ति होते हुए भी गुर्वादि तथा स्थविर, ग्लान मुनि का विनय वैयावच्च करे नहीं और कहे कि इन्होंने मेरी वैयावच्च नहीं की थी-ऐसा अनुकम्पा रहित होवे।
२६. चार तीर्थ में भेद पड़े-ऐसी कथा-क्लेशकारी वार्ता करे तो महा मोहनीय कर्म बांधे।
२७. अपनी प्रशंसा के लिए तथा दूसरे को प्रसन्न करने के लिए वशीकरणादि प्रयोग करे तो महा मोहनीय कर्म बांधे।
२८. मनुष्य तथा देव सम्बन्धी भोगों की तीव्र अभिलाषा करे तो महा मोहनीय कर्म बांधे।
२९. महाऋद्धिवान्-महायश के धनी देव हैं, उनके बलवीर्य की निंदा करे, निषेध करे तो महा मोहनीय कर्म बांधे।
३०. अज्ञानी जीव, लोगों से पूजा प्रशंसा प्राप्त करने के लिए देव को नहीं देखने पर भी कहे कि 'मैं देव को देखता हूँ' तो महा मोहनीय कर्म बांधे।
सिद्धाइगुणेहिं (सिद्धों के गुण) - आठ कर्म की इकत्तीस प्रकृतियों के क्षय होने से . ३१ गुण प्रकट होते हैं। वे इकत्तीस प्रकृतियाँ ये हैं -
५ ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृति - १. मतिज्ञानावरणीय २. श्रुतज्ञानावरणीय ३. अवधिज्ञानावरणीय ४. मनःपर्ययज्ञानावरणीय और ५. केवलज्ञानावरणीय।
९ दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृति - १. निद्रा २. निद्रानिद्रा ३. प्रचला
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