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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन .
परीसहेहिं (परीषह) - क्षुधा आदि किसी भी कारण के द्वारा आपत्ति आने पर संयम में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक तथा मानसिक कष्ट साधु को सहन करने चाहिए, उन्हें परीषह कहते हैं। बाईस परीषह इस प्रकार हैं -
१. क्षुधा - भूख २. पिपासा - प्यास ३. शीत - ठंड ४. उष्ण - गर्मी ५. दंशमशक ६. अचेल - वस्त्राभाव का कष्ट ७. अरति - कठिनाइयों से घबरा कर संयम के प्रति होने वाली उदासीनता ८. स्त्री परीषह ९. चर्या - विहार यात्रा में होने वाला गमनादि कष्ट १०. नैषेधिकी - स्वाध्याय भूमि आदि में होने वाले उपद्रव ११. शय्या - निवास स्थान की प्रतिकूलता १२. आक्रोश - दुर्वचन १३. वध - लकड़ी आदि की मार सहना १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृणस्पर्श १८. जल्ल - मल का परीषह १९. सत्कार पुरस्कार - पूजा प्रतिष्ठा २०. प्रज्ञा परीषह - प्रज्ञा-बुद्धि के अभाव में चिन्ता से होने वाला कष्ट २१. अज्ञान परीषह - विशिष्ट अवधि आदि ज्ञान के अभाव से होने, वाला कष्ट २२. दर्शन परीषह - सम्यक्त्व भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मतों का मोहक वातावरण।
सूयगडज्झयणेहिं (सूत्रकृतांग के अध्ययन) - प्रथम श्रुतस्कंध के १६ अध्ययन सोलहवें बोल में बतलाए गये हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध के सात अध्ययन इस प्रकार हैं - १७. पौण्डरीक १८. क्रिया स्थान १९. आहार परिज्ञा २०. अप्रत्याख्यान क्रिया २१. अनगार श्रुत २२. आर्द्रकीय और २३. नालन्दीय।
देवेहिं (देव) - चौबीस जाति के देव इस प्रकार कहे गये हैं - असुरकुमार आदि दश भवनपति, भूत, यक्ष आदि आठ व्यन्तर, सूर्य चन्द्र आदि पांच ज्योतिषी और वैमानिक देव - ये कुल २४ जाति के देव हैं। संसार में भोग जीवन के ये सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं।
भावणाहिं (भावनाएं) - महाव्रतों का शुद्ध पालन करने के लिये आगमों में प्रत्येक महाव्रत की पांच भावना बतलाई गयी है, जो इस प्रकार है -
पहले महाव्रत की ५ भावना - १. ईर्यासमिति भावना २. मन-समिति भावना ३. वचनसमिति भावना ४. एषणासमिति भावना और ५. आदानभाण्ड-मात्र-निक्षेपना समिति भावना।
दसरे महाव्रत की पांच भावना - १. बिना विचार किये बोलना नहीं २. क्रोध से बोलना नहीं ३. लोभ से बोलना नहीं ४. भय से बोलना नहीं और ५. हास्य से बोलना नहीं।
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