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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
४. वाउकाएणं (वायुकाय) - जिन जीवों का शरीर वायु रूप हैं, वे वायुकाय कहलाते हैं। ५. वणस्सइकाएणं (वनस्पतिकाय) - जिन जीवों का शरीर वनस्पति रूप हैं, वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं। ये पांच स्थावरकाय हैं। इनको केवल एक स्पर्शनइन्द्रिय होती हैं। ६. तसकाएणं (त्रसकाय) - त्रसनामकर्म के उदय से गतिशील शरीर को धारण . करने वाले द्वीन्द्रिय - कीड़े आदि, त्रीन्द्रिय - यूका खटमल आदि, चतुरिन्द्रिय - मक्खी मच्छर आदि और पंचेन्द्रिय - पशु पक्षी, मनुष्य, देव आदि जीव त्रसकाय
कहलाते हैं। लेसाहिं (लेश्याओं से) - "लिश सश्लेषणे संश्लिष्यते आत्मा तेस्तैः परिणामान्तरैरितिलेश्याः " - आत्मा के जिन शुभाशुभ परिणामों के द्वारों शुभाशुभ कर्म का संश्लेष होता है वे परिणाम लेश्या कहलाते हैं।
कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्दः प्रवर्तते।
अर्थ - जैसे स्फटिक मणि के पास जिस वर्ण की वस्तु रख दी जाती है स्फटिक मणि उसी वर्ण वाली प्रतीत होती है उसी प्रकार कृष्णादि द्रव्यों के संसर्ग से आत्मा में भी उसी तरह का परिणाम होता है। यह परिणाम भाव लेश्या रूप है और कृष्णादि द्रव्य लेश्या है यह लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य है। ___ लेश्या के छह भेद हैं - १. कृष्ण लेश्या २. नील लेश्या ३. कापोत लेश्या ४. तेजो लेश्या ५. पद्म लेश्या और ६. शुक्ल लेश्या। प्रथम की तीन लेश्याएं अशुभ (अधर्म) लेश्याएं हैं जबकि अंतिम की तीन लेश्याएं शुभ (धर्म) लेश्याएं हैं।
भयट्ठाणेहि (भय स्थान) - भय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले आत्मा के उद्वेग रूप परिणाम विशेष को 'भय' कहते हैं। भय के सात स्थान ये हैं -
१. इहलोकभय - अपनी ही जाति के प्राणी से डरना, इहलोकभय है। जैसे मनुष्य का मनुष्य से, तिर्यंच का तिर्यंच से डरना। २. परलोकभय - दूसरी जाति वाले प्राणी से डरना, परलोक भय है। जैसे मनुष्य का देव से या तिर्यंच आदि से डरना।
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