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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
अणुव्रत का अधिकारी गृहस्थ होता है क्योंकि गृहस्थ अवस्था में रहने के कारण साधक, अहिंसा आदि की साधना के पथ पर पूर्णतया नहीं चल सकता, हिंसा आदि का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। किंतु साधु का जीवन गृहस्थ के उत्तरदायित्व से सर्वथा मुक्त होता है अतः वह अहिंसा आदि व्रतों की नव कोटि से सदा सर्वथा पूर्ण साधना करता है फलतः साधु के अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहलाते हैं अथवा महान् पुरुषों के द्वारा आचरित महान् अर्थ मोक्ष का प्रसाधन और स्वयं भी व्रतों में महान् होने से महाव्रत कहलाते हैं। कहा भी है - "जाति देशकालसमयाऽनवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रताः" अर्थात् जात्यादि की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य महाव्रत कहलाते हैं। ऐसे पांच महाव्रत इस प्रकार हैं -
१. सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं (सर्व प्राणातिपात विरमण - अहिंसा) - किसी प्रकार की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरे से कराना, न करने वालों का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काया से। २. सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं (सर्व मृषावाद विरमण - सत्य) - किसी प्रकार का झूठ बोलना नहीं, बुलवाना नहीं और बोलने वालों का अनुमोदन करना नहीं - मन से, वचन से और काया से। ३. सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं (सर्व अदत्तादान विरमण - अस्तेय) - किसी प्रकार की चोरी स्वयं करनी नहीं, न दूसरों से करानी और करने वालों की अनुमोदना भी करनी नहीं, मन से, वचन से और काया से। ४. सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं (सर्व मैथुन विरमण - ब्रह्मचर्य) - किसी प्रकार का मैथुन स्वयं सेवन करना नहीं, करवाना नहीं और न ही करने वालों का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काया से। ५. सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं (सर्व परिग्रह विरमण - अपरिग्रह) - किसी प्रकार का परिग्रह रखना नहीं, रखवाना नहीं और रखने वाले का अनुमोदन करना 'नहीं, मन से, वचन से, काया से।
समिइहिं (समितियों से) - विवेकयुक्त होकर प्रवृत्ति करना, समिति है। समिति शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ इस प्रकार है - "सम = एकीभावेन इतिः प्रवृत्तिः समिति, शोभनैकाग्रपरिणामचेष्टेत्यर्थः".
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