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________________ प्रतिक्रमण - तेतीस बोल का पाठ ८१ विद्या आदि का अभिमान करना, इन्हें प्राप्त करने की लालसा रखना ऋद्धिगौरव कहलाता है। २. रसगौरव - दूध, दही, घृत आदि मधुर एवं स्वादिष्ट रसों की इच्छानुसार प्राप्ति होने पर अभिमान करना और प्राप्ति न होने पर उनकी लालसा रखना रसगौरव है। ३. सातागौरव - साता का अर्थ - आरोग्य एवं शारीरिक सुख है। अतएव आरोग्य, शारीरिक सुख तथा वस्त्र, पात्र, शयनासन आदि सुख के साधनों के मिलने पर अभिमान करना और न मिलने पर उसकी लालसा-इच्छा करना, सातागौरव है। विराहणाहिं (विराधनाओं से) - ज्ञानादि आचार का सम्यक् रूप से आराधन न करना, उनका खण्डन करना, उनमें दोष लगाना 'विराधना' है। विराधना तीन प्रकार की होती है - १. ज्ञान विराधना २. दर्शन विराधना ३. चारित्र विराधना। - कसाएहिं (कषायों से) - 'कष्यते प्राणी विविध दुःखैरस्मिन्निति कषः संसारः तस्य आयो लाभो येभ्यस्ते कषायः' - जिसमें प्राणी विविध दुःखों के द्वारा कष्ट पाते हैं। वह संसार (कष) है। उस संसार का लाभ कषाय है अथवा 'दुःखशस्यं कर्मक्षेत्र कृषन्ति फलवत्कुर्वन्ति इति कषायः' - जो दुःख रूप धान्य को पैदा करने वाले कर्म रूपी खेत का कर्षण करते हैं, फल वाले करते हैं, वे कषाय हैं।" आत्मा को इस संसार में परिभ्रमण कराने वाले या गमनागमन रूप कण्टकों में प्राणियों को घसीटने वाले अथवा आत्मा को मलिन करने वाले जीव परिणाम को 'कषाय' कहते हैं। कषाय चार हैं - १. क्रोध २. मान ३. माया और ४. लोभ। अपनी आत्मा का हित चाहने वाले साधक को पाप बढ़ाने वाले क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन चारों कषायों का त्याग कर देना चाहिये। आत्मा का कषायों द्वारा जितना अहित होता है उतना किसी भी अन्य शत्रु द्वारा नहीं होता। कषाय, कर्मबंध के प्रबल कारण हैं। ये ही आत्मा को संसार-भ्रमण कराते हैं। सण्णाहिं (संज्ञाओं से) - कर्मोदय के प्राबल्य से होने वाली अभिलाषा - इच्छा, संज्ञा कहलाती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह के भेद से संज्ञा चार प्रकार की कही है। विकहाहिं (विकथाओं से) - 'विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा' संयम जीवन को दूषित करने वाली विरुद्ध कथा, विकथा कही जाती है। विकथा के चार भेद इस प्रकार हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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