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________________ आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन स्नेहाभ्यक्त शरीरस्य, रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषाक्लिन्नस्य, कर्म बन्धो भवत्येवम् ॥ अर्थ - जिस मनुष्य ने शरीर पर तेल चुपड़ रखा हो उसके शरीर पर उड़ने वाली धूलि चिपक जाती है। वैसे ही राग द्वेष से युक्त आत्मा पर कर्म रज का बंध हो जाता है। दण्डेहिं (दंडों से) आत्मा की जिस अशुभ प्रवृत्ति से आत्मा दण्डित होता है अर्थात् दुःख का पात्र बनता है, वह दण्ड कहलाता है । दण्ड तीन प्रकार के हैं १. मनोदण्ड २. वचनदण्ड और ३. कायदण्ड । लाठी आदि द्रव्य दण्ड है उसके द्वारा शरीर दण्डित होता है यहाँ दुष्प्रयुक्त मन आदि भावदण्ड है जिससे आत्मा दण्डित होती है। गुत्तहिं (गुप्तियों से) - अशुभ योग से निवृत्त हो कर शुभ योग में प्रवृत्ति करना गुप्ति है अथवा संसार के कारणों से आत्मा की सम्यक् प्रकार से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेद हैं - १. मनोगुप्ति २. वचनगुप्ति और ३. कायगुप्ति । ८० - सल्लेहिं (शल्यों से) ''शल्यतेऽनेनेति शल्यम्' जिसके द्वारा अन्तर में पीड़ा सालती रहती हो, कसकती रहती हो वह तीर, कांटा आदि द्रव्य शल्य है और माया आदि भाव शल्य है । द्रव्य शल्य कांटा तीर आदि शरीर में घुस जावे और नहीं निकले तब तक वह चैन नहीं लेने देता, उसी प्रकार मायादि शल्य अन्तरात्मा को शांति नहीं लेने देते हैं। तीनों ही शल्य तीव्र कर्म बन्ध के हेतु हैं । अतः दुःखोत्पादक होने के कारण शल्य है। सूत्रोक्त शल्य के तीन भेद इस प्रकार हैं १. माया शल्य- माया अर्थात् कपट । माया, एक तीक्ष्ण धार वाली ऐसी तलवार है। जो क्षण भर में स्नेह संबंधों को काट देती है । २. निदान शल्य - धर्माचरण के द्वारा सांसारिक फल की कामना करना, भोगों की लालसा रखना, निदान शल्य कहलाता है। ३. मिथ्यादर्शन शल्य सत्य पर श्रद्धा न रखना एवं असत्य का कदाग्रह रखना मिथ्यादर्शन शल्य होता है। यह शल्य सम्यग्दर्शन का विरोधी है। Jain Education International - गारवेहिं ( गौरवों से ) गौरव का अर्थ है गुरुत्व भारीपन । पत्थर आदि की गुरुता द्रव्य गौरव है और अभिमान एवं लोभ के कारण होने वाला आत्मा का अशुभ भाव भाव गौरव है। गौरव के तीन भेद इस प्रकार है - १. ऋद्धिगौरव - ऊंचा पद, सत्कार-सम्मान, वंदन, उग्र व्रत, अनुयायी शिष्य संपदा, For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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