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प्रतिक्रमण - तेतीस बोल का पाठ
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हो ३३ स्वाध्याय में स्वाध्याय न किया हो - इन तेतीस आशातनाओं से जो भी अतिचार लगा हो उसका दुष्कृत - पाप मेरे लिए मिथ्या हो।
इन तेतीस बोलों में से जानने योग्य बोल को जाना न हो, आचरण में लाने योग्य बोल का आचरण न किया हो और छोड़ने योग्य बोल को छोड़ा न हो तो उसका पाप मिथ्या (निष्फल) हो।
विवेचन - प्रस्तुत पाठ में पडिक्कमामि एगविहे असंजमे से लेकर तेतीसाए आसायणाहिँ तक के सूत्र में एकविध असंयम का ही विराट रूप बतलाया गया है। यह सब अतिचार-समूह मूलतः असंयम का ही विवरण है। 'पडिक्कमामि एगविहे असंजमे' यह असंयम का संक्षिप्त प्रतिक्रमण है और यही प्रतिक्रमण आगे दोहिं बंधणेहिं आदि से लेकर तेतीसाए आसायणाहिँ तक क्रमशः विराट् होता गया है। .. ' प्रस्तुत पाठ में आये कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ एवं विवेचन इस प्रकार है -
असंजमे (असंयम) - सं+यम अर्थात् सावधानी पूर्वक इच्छाओं का नियमन एवं इन्द्रिय निग्रह करना संयम कहलाता है। संयम का विरोधी असंयम है। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले रागद्वेष रूप कषाय भाव का नाम असंयम है। इसमें दृष्टि पौद्गलिक (बहिर्मुखी) हो जाती है। अतः इस सूत्र का अर्थ हुआ - संयम पथ पर चलते हुए प्रमाद वश असंयम हो गया हो, अन्तर्हृदय साधना पथ से भटक गया हो तो वहाँ से हट कर पुनः उसे संयम (आत्म-स्वरूप) में केन्द्रित करता हूँ। असंयम ही समस्त सांसारिक दुःखों का मूल है। - यद्यपि संयम के १७ भेद होने से उसके विरोधी असंयम के भी १७ भेद हैं और विस्तार की अपेक्षा से अन्य भेद भी हो सकते हैं किंतु सामान्यग्राही संग्रहनय की अपेक्षा से यहां एक ही प्रकार कहा गया है।
. बंधणेहिं (बंधनों से) - 'बद्भयतेऽष्ट विधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम्' अर्थात् जिसके द्वारा आठ कर्मों का बंध हो, उसे बंधन कहते हैं। राग और द्वेष - ये दो बंधन हैं। जिसके द्वारा जीव कर्मों से रंगा जाता है वह मोह की परिणति ही राग है अतः राग बंधन रूप है। जिस मोह परिणति के द्वारा शत्रुता, घृणा, क्रोध, अहंकार आदि किया जाता है, वह द्वेष है। वह भी बंधन रूप है।
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