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प्रत्याहार, भ्रान्तिदोष का त्याग, सूक्ष्मबोध गुण प्राप्त होते हैं । इस दृष्टि में भवचेष्टा बालधूलिक्रीडा समान भासित होती है और धर्मजनित भोग में भी अनिष्टताबुद्धि का उदय होता है । अन्य योगाचार्यों ने जो निष्पन्नयोगी का लक्षण बताया हैऋतम्भरा बुद्धि-वैरनाश-जनप्रियता आदि वे सब यहां सम्पन्न होते हैं ।
(६) कान्ता दृष्टि में तारा प्रकाश तुल्य बोध का उदय, छट्ठा योगांग धारणा, अन्यमुद् चित्तदोष का त्याग और तत्त्व मीमांसा गुण प्राप्त होते हैं । विषयभोग को मृगजल तुल्य समझकर यह योगी उसका अतिक्रमण कर जाता है-उसकी प्रगति में भोगादि रुकावट नहीं कर सकते ।।
(७) प्रभा दृष्टि में सूर्यप्रभा समान बोध, सातवाँ योगांग ध्यान, रोग दोष त्याग और तत्त्वप्रतिपत्ति गुण प्राप्त होते हैं । चतुर्थ असङ्ग अनुष्ठान की यहां सम्प्राप्ति होती है ।
स्थिरा-कान्ता और प्रभादृष्टि मुख्यतया चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानक में विद्यमान होती है ।
(८) सप्तम गुणस्थान से परादृष्टि का प्रारम्भ हो जाता है । यद्यपि उपचार से छठे गुणस्थान से उसका प्रारम्भ हो जाता है । इस दृष्टि में चन्द्रप्रभा तुल्य बोध, अष्टम योगांग समाधि, आसंग दोष का त्याग और स्वस्वभाव में प्रवृत्ति गुण प्राप्त होते हैं । केवलज्ञानादि इसी दृष्टि में प्रगट होते हैं । सर्व साधना यहां समाप्त होती है और योगी कृतकृत्य बन जाता है ।
आठ योगदृष्टि के विवरण उपरांत इस ग्रन्थ में बौद्ध के क्षणिकवाद की मीमांसा और योगी के गोत्र, कुल, प्रवृत्तचक्र और निष्पन्न योगी ये चार प्रकार और अवंचक योग के तीन प्रकार का उपवर्णन किया है ।
__योगबिन्दु ग्रन्थ में मोक्ष साधक योग तत्त्व की मीमांसा की गयी है । ग्रन्थकार का परामर्श है कि सर्वत्र योग की मोक्षहेतुता मानी जाती है किन्तु योग का विषय उसका स्वरूप और उसका फल ये तीन में विसंवाद होने से उनकी मीमांसा लोक प्रतीति और शास्त्र दोनों से अविरुद्ध रीति से की जानी चाहिये । २९ भोक तक उसकी मीमांसा है । उसके बाद अध्यात्म-भावना-ध्यान-समता और वृत्तिसंक्षय पाँच प्रकार का योग मार्ग जो इस ग्रन्थ का प्रधान प्रतिपाद्य विषय है उसका प्रारम्भ होता है । तात्त्विक-अतात्त्विक, सानुबन्ध-निरनुबन्ध, सात्रव-अनास्रव योगभेदों के नाम निर्देश के बाद योगमाहात्म्य उद्भासित किया है-जिसके अन्तर्गत जातिस्मरणज्ञान के उपायों का भी निर्देश है । उसके बाद तत्त्वप्रतिप्रत्ति के लिये जरुरी अध्यात्म, उसकी दुर्लभता और भवाभिनंदीजीवों का लक्षण इत्यादि दिखाया गया है । योग के लिये उचित पूर्वसेवा स्वरूप गुरुदेवादिपूजन, चारिसंजीवनीचार न्याय से सब जीवों
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