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________________ की कल्याण कामना, मुक्ति के प्रति अद्वेष, विष-गर- अननुष्ठान - तद्धेतु-अमृत पांच प्रकार के अनुष्ठानों का स्वरूप आदि प्रतिपादन के बाद १७९ लोक से अपुनर्बन्धक, मार्गपतित, मार्गाभिमुख इत्यादि का स्वरूप बताया गया है । तदनन्तर विषयशुद्धि, स्वरूपशुद्धि, अनुबन्धशुद्धिः तीन प्रकार की अनुष्ठानशुद्धि का निरूपण है । २२१ श्लोक से शास्त्र की महत्ता का निदर्शन है । २५२ क से सम्यग्दृष्टि आत्मा के लिङ्गों का उपदर्शन है । २९४ लोक से जिन नाम कर्म आदि के बंधक महात्माओं की तत्त्व चिन्ता का स्वरूप निरूपण है । ३१८ लोक से दैव और पुरुषकार की अन्योन्य सापेक्षता, ३५२ श्लोक से चारित्रवान् के लक्षणों का निर्देश है । यहाँ से मुख्यतया अध्यात्मादि पाँच प्रकार का निरूपण प्रारम्भ होता है । उसके बाद उसी में तात्त्विक अतात्त्विक आदि भेदों का उपयोजन किया गया है । श्लोक ३८० से विशेषतः अध्यात्म का स्वरूप दिखाया गया है जिस में जप अध्यात्म, निजयोग्यतालोचनादि रूप अध्यात्म, देववन्दनादि रूप अध्यात्म प्रधान हैं | लोक ४०५ से वृत्ति संक्षय योग की विशेष मीमांसा है जिस में सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात अन्यमत प्रसिद्ध योग भेद का समन्वय उपदर्शित है । श्लोक ४३५ से सर्वज्ञता की मीमांसा में मीमांसक, सांख्य और बौद्ध मत की आलोचना प्रस्तुत है । लोक ४७८ से आत्मएकान्तनित्यता का निराकरण कर के परिणामी आत्मवाद की प्रतिष्ठा की गयी हैं । ✔ ग्रन्थ के अन्त भाग में विद्वत्ता का फल सद् योगाभ्यास, योग की गोचरादिशुद्धि, पुरुषाद्वैतवादमीमांसा एवं बौद्धमत मीमांसादि का निरूपण कर के ग्रन्थ समाप्त किया गया हैं । पूज्यपाद स्व. आचार्य देव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज और उनके पट्ट विभूषक प. पू. न्यायविशारद आचार्य देव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज की महती कृपा इस ग्रन्थ संपूट के सम्पादन में साद्यन्त अनुगत है और प. पू. स्व. शान्तमूर्ति मुनिपुङ्गव श्री धर्मघोष विजय महाराज के शिष्यसत्तम प. पू. गुरुदेव आगमविशारद पं. श्रीमद् जयघोष विजय महाराज की करुणागर्भित सहाय इस सम्पादन में सतत स्फुरायमाण रही हैं जो ग्रन्थसत्तापर्यन्त चिरस्मरणीय रहेगी । ग्रन्थ प्रकाशन सम्पादन और मुद्रण में जिन महानुभावों ने आर्थिक सहाय और हस्तप्रत प्रदान कर के महान् श्रुतभक्तिका लाभ उठाया हैं वे नि:शंक धन्यवाद के पात्र है । ग्रन्थ सम्पादन में मुद्रणादि कारण वंश जो कुछ भी अशुद्धियाँ रह गयी हो उन्हें परिमार्जित कर के अधिकारी मुमुक्षुवर्ग चिर काल तक इस का अध्ययनादि कर के निर्जरा और मुक्ति लाभ सिद्ध करे यही शुभेच्छा । - मु. जयसुंदर विजय Jain Education International 11 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004175
Book TitleHaribhadra Yogbharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhayshekharsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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