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का स्वरूप, दोषक्षय की द्विविधता, सामायिक की मोक्षांगता इत्यादि अनेक गहन विषयों का इस ग्रन्थ में स्पष्टीकरण पाया जाता हैं । अन्त में मरणकाल विज्ञान के उपाय भी बताये गये हैं । टीकागत एक उल्लेख से यह पता चलता है कि श्री हरिभद्र सूरिमहाराजने 'उपदेशमाला' ग्रन्थ पर भी टीका बनायी होगी । _ 'योगदृष्टिसमुच्चय' इस ग्रन्थ में मुमुक्षु आत्माओं की आध्यात्मिक उन्नति का क्रम आठ योगदृष्टिओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है । योग अध्येताओं को यह ग्रन्थ चिरकाल से प्रिय रहा है ।
प्रारम्भ में इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामर्थ्ययोग, तीन प्रकार का प्रासंगिक प्रतिपादन है जो अग्रिम समग्र ग्रन्थ का भाव समझने में बहुत उपयोगी है । मित्रा तारा आदि आठ योगदृष्टि से बाह्य ओघदृष्टि के निरूपण के बाद प्रत्येक दृष्टिगत बोध का स्वरूप तृणाग्नि आदि की प्रभा के दृष्टान्त से बताया हैं । मित्रादि आठ दृष्टि में आठ यम, आठ दोषत्याग और आठ गुण इत्यादि की योजना बतायी गयी है जो इस प्रकार है -
(१) मित्रादृष्टि में दर्शन (बोध) तृणाग्नि प्रभा समान मंद होता है, अष्टांग में से प्रथम यम, खेद दोष का त्याग और अद्वेषगुण की सम्प्राप्ति होती है । इस दृष्टि में आत्मा जिनभक्ति, सद्गुरुसेवा, भव उद्वेग, द्रव्याभिग्रह पालन और सिद्धान्त के लेखन आदि योग बीजों का संचय करता है । इसी दृष्टि में तात्त्विक प्रथम गुणस्थान सम्प्राप्त होता है । . (२) तारादृष्टि में दर्शन गोमय अग्नि प्रकाश समान होता है । दूसरा नियम अंग, उद्वेग दोष त्याग-जिज्ञासा गुण आदि यहां प्राप्त होते हैं । विशेषत योगकथाप्रेमबहुमान, भव का अतिभय, औचित्य का आचरण और शिष्ट लोगों के प्रामाण्य का स्वीकार आदि इस दृष्टि के प्रमुख लक्षण हैं । .. (३) बलादृष्टि में काष्ठाग्नि कण प्रभा समान दर्शन होता है । तृतीय आसन अंग, क्षेप दोष त्याग, शुश्रूषा गुण की प्राप्ति होती है । तत्त्वगर्भित वचनों को सुनने की इच्छा यहां प्रबल बन जाती है । और वही उसके लिये तत्त्वज्ञान का बीज बन जाती है ।
(४) दीप्रादृष्टि में दीपप्रभा समान बोध प्रस्फुरित होता है । चतुर्थ योगांग राणायाम, उत्थान दोषत्याग, तत्त्वश्रवण गुण की यहां प्राप्ति होती है । इसी दृष्टि के विवरण. में भवाभिनंदी के आठ लक्षण तथा वेद्यसंवेद्यपद और अवेद्यसंवेद्यपद का गम्भीर विवेचन है । प्रथम गुणस्थान इस दृष्टि में पराकाष्ठा प्राप्त हो जाता है और मिथ्या अभिनिवेश का विगलन हो जाता है ।। ___. (५) स्थिरा दृष्टि में रत्नप्रभा तुल्य बोध का उदय होता है । पंचम योगांग
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