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________________ . 28. दुष्पट्ठिय अप्पा अमितं 61/123 = अशुभ में स्थित (स्व)-प्रात्मा 29. अप्पाणमेव बुझाहि 64/126 = अपने में (अंतरंग राग-द्वेष से) ही युद्ध कर। 30. कि ते बुझण बझमो 64/126 = बहरिंग (व्यक्तियों) से युद्ध करने . से तेरे लिए क्या लाभ ? 31. अध्यागमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए 64/126 = अपने में ही अपने (राग-द्वेष) को जीत कर सुख बढ़ता है। 32. अप्पा हु खलु बुद्दमो 65/127=प्रात्मा ही सचमुच कठिनाई से वश में किया जाने वाला (होता है)। . 33. अप्पा चेव दमेयम्यो 65/127=प्रात्मा ही वश में किया जाना चाहिए। . 34. अप्पा बंतो सुही होइ 65/127= वश में किया हुआ प्रात्मा (ही) सुखी होता है। 35. कोहो पाइं पणासेइ 70/135 = क्रोध प्रेम को नष्ट करता है। 36. माणो विणयनासणो 70/135 = मान विनय का नाशक (होता है)। 37. माया मित्ताणि नासेइ 70/135 = कपट मित्रों को दूर हटाता है । 38. लोहो सम्बविणासणो 70/135 = लोभ सब (गुणों का) विनाशक (होता है)। 39. उसमेण कोहं हणे 51/136 =क्षमा से क्रोध को नष्ट करें। . 40. संतोसो लोभं जिणे =51/136 = संतोष से लोभ को जीते । 41. जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति ममाइयं 74/142 =जो ममता वाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है, वह ममतावाली वस्तु को छोड़ता है। .42. इंषियगुत्ती असंगत्तं 76/146 = इन्द्रिय-संयम अनासक्तता (है)। 43. सम्बे जीवा जीविडं इच्छति 78/148 = सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं। 66 ] [ समणसुतं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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