SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12. कम्मं चिणंति सवसा 28/60 = (जब व्यक्ति) कर्म को चुनते हैं, (तो) (वे) स्वाधीन (होते हैं)। 13. तस्सुक्यम्मि उ परव्वसा होंति 28/60 = किन्तु उसके (कर्म) के विपाक में (व्यक्ति) पराधीन होते हैं। 14. मिच्छत्तं वेतो जीवो विवरीयदसणो होइ 30/68 =जीव मिथ्यात्व को भोगता हुमा विपरीत दृष्टि होता है । . 15. मिश्चत्तपरिणवप्पा जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा 31/69 = मिथ्यात्व के द्वारा परिवर्तित आत्मा जीव और देह को एक मानता हुमा बहिरात्मा होता है। . 16. तं तवसंजमभंडं तुरंतो गिम्हाहि 35/74=तू तप-संयमरूपी उपकरण को शीघ्रता करते हुए ग्रहण कर । 17. भावे विरत्तो मणुमो विसोगो 39/81 = वस्तु-जगत् से विरक्त मनुष्य दुःख रहित (होता है)। 18. जीवारणं रक्खणं धम्मो 41/83 = जीवों की रक्षा करना धर्म है । 19. मित्ती मे सब्वभूदेसु 43/86 = मेरी सब प्राणियों से मित्रता है। 20. वेरं माझंग केज वि 43/86 = किसी से भी मेरा वैर नहीं है। 21. सम्मामि सब्दजीवाणं 43/86 = (मैं) सब जीवों को क्षमा करता हूं। 22. सव्वे जीवा खमंतु मे 43/86 = सब जीव मुझे क्षमा करें। 23. सच्चम्मि तवो वसदि 47/96 = सत्य (बोलने) मैं तप होता है। 24. सच्चम्मि संजमो वसे 47/96 = सत्य (बोलने) में संयम होता है। 25. इच्छा आगाससमा अगन्तिया 48/98 = इच्छा आकाश के समान .. अन्तरहित (होती है)। 26. अप्पसक्सिमो जहदिनो धम्मो 59/121 = आत्म-साक्षीपन वास्तविक ' धर्म है। 27.. सुप्पद्विमो अप्पा मित्तं 61/123 = शुभ में स्थित (स्व)-प्रात्मा मित्र है। .. .. चयनिका ] ... [ 65 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy